यह बात सन १९८५ की है ,उस समय मैं १५ साल का था ।स्कूल की , छुट्टियां पड़ी हुई थी ।
मैं दिल्ली से अपने गांव , छुट्टियां बिताने आया हुआ था ।मेरा गॉव उत्तराखंड के पर्वर्तीयआँचल में है ।
दिल्ली या अन्य मैदानी इलाकों के शोर गुल से निकल कर, पहाड़ों की ताज़ा हवा पानी प्रकृति सौंदर्य का आनंद भला कौन न लेना चाहेगा ।
खैर मैं बहुत खुश था आखिर , एक साल बाद अपने गांव जो आया था । पहले दिन तो अपने दोस्तों के साथ गपशप में बीता बड़े बुजर्गों से मिलना प्रणाम करना और आशीष लेने में ही बीत गया ।
दूसरे दिन सुबह होते ही , मित्र गण का जमावड़ा लग गया सारा दिन मस्ती करते रहे घूमे पनघट चरागाहों में ।
कभी पोखरों में जहाँ हम गाय बैलों के संग जाया करते थे , शाम ढलते ही , सब मित्रगण अपने अपने घर लौट आये ।
रात को खाना खाने के बाद , कुछ सोच रहा था कि कल कहाँ जाया जाए ।
तभी विचार यकायक आया क्यों न वन चला जाये ।
रात करीबन १२-१ बज गए थे , देर रात सोने के कारण सुबह १०-११ बजे आँख खुली थी ।
तब तक सारे गाँव वाले अपने अपने काम धंधों पर निकल गए थे । मेरी माँ भी मुझे जगाने में विफल रही और नाश्ता थाली में परोस कर घास-न्यार के लिए खेत मे चली गयी ।
मैं उठा और नाश्ता किया , कुल्हाड़ी और रस्सी लेकर वन प्रस्थान को निकल गया ।
चढ़ाई रास्ता था मैं थकता , कुछ फासले के बाद बैठ जाता ।
लगभग एक डेढ़ घंटे की चढ़ाई के बाद मैं , वन के प्रारंभ में ताल नाम की जगह पर पहुंच गया । के
बरसाती पानी और मूल जल स्रोत के कारण उस जगह में एक बड़ा जलाशय है , जिस कारण उस जगह का नाम ताल जिसका अर्थ तालाब होता है पड़ा ।
ताल के थोड़े ही आगे चल कर ऊंचा टीला था , थोड़ा विश्राम करने के बाद मैं घनघोर वन की और निकल पड़ा ।
बहुत विशाल वन लगभग १० वर्ग किलो मीटर बहुत ऊंचे ऊंचे देवदार चीड़ के वृक्ष कही बांज (हज़्नेट), बुरांश , अयांर और अन्य विभिन्न प्रकार के वृक्षों से आच्छादित तरह तरह के पुष्पों की भीनी भीनी सुंगंध लिए प्रकृति का अनूठा उपहार धरा को , यह सब देखते मन रोमांचित हो उठा ।
चलते चलते दो रास्ते की जगह पर पहुंचा जो ताल से लग भाग १० किलोमीटर के आसपास पर था , उस जगह शीतल जल स्रोत है जिसका नाम अलवाड़ा का पानी है ।
पैदल चलते थक गया था कुछ देर वहाँ पर विश्राम किया शीतल जल पिया जल पीने के बाद कुछ तरोताजगी महसूस हुई । कुल्हाड़ी हाथ मे लिए निसलिया बाट अर्थात निचले रास्ते से घनघोर वन में प्रवेश कर गया ।
अकेला सुनसान वन मनुष्य के नाम पर शायद मैं ही था वहां , तरह तरह की पक्षियों के उड़ते बैठते झुंड उनके चहचाटों से मन अति रोमांचित हो रहा था ।
अचानक मेरी नज़र एक पेड़ पर पड़ी उसके ऊपर एक विचित्र प्राणी बैठा हुआ था , काले रंग का और उसकी पूँछ लगभग १० या १२ फुट की रही होगी धरती को स्पर्श किये हुई उसकी पूंछ , मैंने ऐसा प्राणी अपनी जिंदगी में न तो पहले कभी देखा था , न उस दिन के बाद कभी देखा है ।
उसे देखते ही मेरे अंदर का सारा रोमांच फुर्र हो गया डर के मारे मैं कांपने लगा , कुल देव और देवियों का स्मरण होने लगा , मैं दबे पाऊँ छुपते छुपाते बिट्टा (मिट्ठी और पत्थरों की प्राकृतिक दीवर) की आड़ लिए वहां से निकलने में कामयाब हो गया , काफी आगे निकलने के बाद जान पर जान आयी ।
थक कर चूर हो गया था वन विशाल था ज्यादा भी आगे जाना भी संभव नही था समय का अभाव भी था अतः करीबन दो तीन किलोमीटर के बाद मल्या बाट (ऊपर की तरफ वाला रास्ता) से वापस हो लिया ।
रास्ते मे सुखी लकड़ी का एक गेंडगु (पेड़ का तना लगभग ५ फुट लंबा १ फुट व्यास ) पड़ा मिला , मैंने भी कुल्हाड़ी कंधे से उतारी और उसको कई हिस्सों में फाड़कर एक गठ्ठा बना कर वापसी के लिए चल पड़ा , घनघोर वन से अब मुझे जल्दी निकलने उत्सुकता हो चली थी ।
करीबन दोपहर के ढाई बज रहे होंगे , अलवाड़ा का पानी मे पहुंच गया पानी पीने का दिल किया पर....एक अजीव सी गुर्राहट ने मेरे दिल की धड़कनों को तेज कर दिया , मुझे दिखा तो कुछ नही था चारों ऒर झाड़ियां थी ।
लेकिन आवाज से मैं बहुत डर गया था और वहां रुका नही , तेज कदमों से मैं चलता रहा । करीबन ५ किलोमीटर के बाद सघन वन से निकल कर एक गुवाणीया डांग (भीम काय विशाल पत्थर ) नामक जगह पर जब मैं पहुंचा तो बिना विश्राम के आगे का रास्ता तय कर पाना मेरे लिए संभव न था अतः मैं वहाँ पर गमछा जमीन पर बिछाकर थोड़ा सुस्ताने लगा और न जाने कब आँख लग गयी और मैं सो गया ।
अचानक स्वप्न या अर्धनिंद्रा में किसी ने मुझे जोर का तमाचा मेरे गाल पर मारा और मैं एक दम जाग कर उठा पजैबों की छम छम और चूड़ियों की खनखनाहट मुझे सुनाई दी पहाड़ी रास्ता उतराई की ओर जाती हुई कोई मुझे प्रतीत हुई । मैं उसके पीछे भगा पर वो अदृश्य हो गयी ।
मैं तो पहले ही डरा हुआ था , और अब एक और यह घटना मगर तब मैंने सोचा कि इतनी जोर का तमाचा पड़ा मेरे गाल पर , लेकिन मुझे न दर्द हुआ न कोई निशान ही तो यह क्या था , दिल मानो अब बाहर ही आने को हो गया था जैसे ।
फिर इक क्षण संभला और वहां से चल पड़ा फिर तो मैं कही रुका नही जब तक वन था ।
सांझ होने लगी थी कहीं पर झाड़ झुरखट पर सरसराहट , कहीं पर छिबराहट होने लगी थी , मैं डरता सहमता वन से अब पूरी तरह बाहर था ।
सड़क(रोड) आ गयी थी , सड़क के किनारे मुझे एक दुकान चाय की नज़र आ गयी , 6 बंद (ब्रेड रोटी) और चार गिलास चाय पिया ।
दुकान वाला और अन्य दो चार लोग मुझे देखते रह गए , उसमें से एक बोला अरे बेटे क्या बात जन्म जन्म का भूखा था क्या ? मैं बिना कोई प्रतिक्रिया किये दुकान से निकल गया ।
कंधे में लकड़ी का गठ्ठा लिए मैं , उतराई रास्ते अपने गॉव की ओर प्रस्थान हो गया जो अब महज़ आधे घंटे का सफर और था ।
अंधेरा हो चला था उस जमाने में आज की तरह कोई संचार का साधन आम नही था । माँ चिंता और पुत्र मोह पाश में बंधे , हाथ में टार्च लिए मेरी तलास में चढ़ाई रास्ता चढ़ते हुए आ रही थी ।
मेरी नज़र दूर से ही उजाले की ओर पड़ी तो मन मे आशा की किरण जाग गयी की कोई आ रहा है , जैसे जैसे उजाला मेरे करीब आया मैंने आवाज दी कौन है , माँ बोली मैं हूँ आ आ डर मत मैं आ गयी ।
फिर मेरी जान में जान आयी , मैं माँ से लिपट गया , माँ ने मुझे दुलार किया और कहने लगी , अकेला क्यों वन को गया था , अगर तुझे कुछ हो जाता तो , सोचा तूने तब मेरा क्या हाल होता ?
✍🏼 ज्योति प्रसाद रतूड़ी ।
नोट:- पाठकों से निवेदन है कि कहानी के बारे में अपनी प्रतिकिया अवश्य दे । धन्यवाद !