इन दिनों भीषण गर्मी के साथ ही लू के थपेड़ों से लोगों में हाहाकार मचा है। मैं जब सुबह घर से निकलकर १० बजे ऑफिस पहुँचती हूँ तो चिलचिलाती धूप में ऐसा आभास होता है जैसे सुबह के १० नहीं १२ बज गए हों। रास्ते में जहाँ सड़कें सपाट मिलती हैं वहां जब सिर के ऊपर सूरज तमतमाता है तो वहां से एक कदम आगे बढ़ाने से भी दिल घबराता है, लेकिन जहाँ-जहाँ पेड़-पौधे मिलते हैं, वहां से गुजरने पर ऐसी राहत मिलती है कि मन दो-घड़ी वहीँ चैन से बैठने को कहता है। सोचती हूँ काश रास्ते भर ये पेड़-पौधे होते तो कितना अच्छा होता? यदि लोग अधिक से अधिक फलदार व छायादार पेड़-पौधे लगाते तो हमारे आसपास कितनी हरियाली होती और हमें फिर इससे कितनी ख़ुशी मिलती, हम कितने स्वस्थ रहते? इससे हमको गर्मी से तो राहत मिलती ही शुद्ध ऑक्सीजन भी मिलता।
सोचती हूँ पेड़-पौधों के प्रति प्रेम-भावना तो हमारे देश में बहुत प्राचीन काल से है। हम तो पेड-पौधों को लकड़ी की साधारण ठूंठ ही नहीं, बल्कि उन्हें देवता मानते आए हैं। भगवान शंकर का निवास मानकर हम वट की पूजा तो आमलकी एकादशी को आंवला की पूजा करते हैं। पीपल और तुलसी की पूजा तो प्रतिदिन होती है। फिर आखिर क्यों हमने लालच में ईश्वरीय सृष्टि की अलौकिक, अद्भुत, असीम एवं विलक्षण कलास्वरूप प्रकृति-सौंदर्य के कोश को लूटने के लिए उससे शत्रुता मोल लेकर उसके हरे-भरे खेत नष्ट किए, वन-उपवन काटे, हरियाली उजाडी, पहाड़ों को तोड़ा और नदियों को मरोड़ने का दुस्साहस किया? क्यों उसके हरे-भरे खेतों के स्थान पर बड़ी-बड़ी इमारतें तानकर, अमूल्य-बहुमूल्य पदार्थों के कोश वनों के स्थान पर बडे-बड़े औद्योगिक संस्थान खड़े करके सुगंधित वायुमंडल को दूषित कर और विषैली गैसों से पावन जल को अपवित्र कर विकसित होने का दंभ भर रहे हैं? हम क्यों भूल रहे हैं कि पेड़-पौधे तो प्राकृतिक सुंदरता के घर हैं, हरियाली का स्रोत हैं, स्वास्थ्य वृद्धि की बूटी हैं, वर्षा के निमंत्रणदाता हैं, प्रकृति के रक्षक हैं, प्रदूषण के नाशक हैं, प्राणिमात्र के पोषक हैं। वे अपने पत्तों, फल-फूल, छाया, छाल, मूल, वल्कल, काष्ठ, गंध, दूध, भस्म, गुठली और कोमल अंकुर से प्राणि-मात्र को लाभ पहुंचाते हैं। बावजूद इसके आज यह गंभीर चिंतन का विषय बना है कि-
“बरगद, पीपल, नीम को, काट ले गये लोग।
हवा भी जहरी हुई, फैला जहरी रोग।।“