कल सोशल साइट्स पर चाय दिवस के अवसर पर बड़ा हो-हल्ला मचा था। सोचा लगे हाथ मैं भी कुछ लिखती चलूँ तो घर की कामों में अब-तब करते-करते सुबह से रात कब हो गयी पता ही नहीं चला। दरअसल घर में पिछले हफ्ते राजस्थान से अपने पति के साथ ननद आई हुई थी, जो कल रात ही अपने ससुराल गयी तो उनकी आवभगत में लगे रहने से कुछ लिख नहीं पायी। आज भी दिन अभी तक खाने-पीने और घर-भर के लत्ते-कपड़ों को धोने-सुखाने में निकल गया तो थोड़ी फुर्सत अब जाकर मिली तो सोचा क्यों न आज लिखती चलूँ। अब चाय वाली बात हैं न, इसलिए छोड़ नहीं सकती। ऑफिस हो या घर चाय के बिना अपनी गाड़ी आगे बढ़ती ही नहीं है। सुबह से लेकर रात तक ४-६ चाय तो चलती ही है और अगर कहीं कोई शादी-ब्याह में रात भर जागने हो तो फिर तो मत पूछो हर घंटे में चाय चाहिए होती है। चाय हलक में जाते ही नींद फुर्र। मेरे पतिदेव तो ग्रीन चाय पीते हैं, वे तो मुझे कहते-कहते थक गए कि ज्यादा चाय मत पियो, नुक्सान करती हैं, लेकिन ये तो आदत हो गयी, लग जाती हैं तो ऐसे ही जाती कहाँ है?
चाय की बात निकली है तो चाय की तरह ही बहुत से किस्से याद आने लगे हैं। चाय का नाम भले ही एक हो लेकिन इसका स्वाद सब जगह अलग-अलग होता है। गाँव में जाते हैं तो वहां अलग शहर में जाते हैं तो वहां अलग। चाय में पानी-दूध और चीनी की मात्रा कितनी भी हों और कैसी भी वह बनी हो, लेकिन अगर कोई उसे प्रेम से लाकर देता है और दो शब्द प्यार के उसमें घोल देता हैं फिर क्या कहने! दुनिया अपनी बन जाया करती है। अपने घर में चाय तो पीते रहते हैं, लेकिन जब हम कहीं बाहर जाते हैं तो वहां की चाय को बहुत याद करते हैं विशेषकर जब वहां का अंदाज कुछ जुदा हो। ऐसे ही जब पिछले वर्ष मेरी ननद की विवाह हुआ तो उसके ससुराल राजस्थान के गाँव जाना हुआ तो वहां चाय पीने-पिलाने का अंदाज बड़ा अलग लगा। वहां मुझे पानी पिलाने का ढंग भी अलग था। वे एक लोग एक लोटे में पानी भरकर सबको उसी से पीने पिला रहे थे। यह देख मुझे अच्छा लगा और मैं अपने गांव की याद में खो गयी। क्योंकि हम भी कभी ऐसे ही पानी पिया करते थे। पानी पिलाने की बाद जब उन्होंने चाय दी तो मुझे बड़ा अचरज हुआ, क्योंकि वे लोग कटोरे में चार घूंट चाय लेकर एक तरफ से सबको देते जा रहे थे और लोग सुड़की लगाकर एक ही बार से पीकर दूसरे आदमी को कटोरी पकड़ा दे रहे थे। जब मेरी बारी आयी तो में तो पहले तो मैं कटोरी को देखने लगी और फिर चार घूँट चाय को। लोग क्या कहेंगे यह सोचकर मैंने भी उसे एक ही सांस में गटक ली। अब दूसरी बार मांगने का विकल्प तो था नहीं बस सबको देख रही थी कि कोई तो कहे कि और चाय चाहिए क्या? लेकिन किसी से परिचय हुआ न था इसलिए चार घूँट से काम चलाना पड़ा। मैं सोचने लगी अरे यहाँ मेहमानों को चाय जरूर पिलाते हैं लेकिन हमारी तरह बड़े-बड़े गिलास-कप भरकर नहीं, इससे इनकी तो बड़ी बचत होती होगी, शायद इसलिए इन्हें मारवाड़ी कहते हैं। इनके किस्से सुने थे आज देख भी लिए। जितनी चाय हम एक मेहमान को पिलाते हैं उतने में ये १५-२० को निपटा देते हैं।
यह देखकर मेरे पतिदेव तो बड़े खुश हुए कि चलो मुझे कुछ तो सबक मिला कि चाय कम ही पीनी चाहिए लेकिन हम कहाँ सुधरने वाले, वे नहीं पीते हैं तो क्या हम छोड़ दें, ऐसे कैसे हो सकता हैं। आदत है तो जाएगी कैसे? हम तो परम्परा निभाते हैं कोई कुछ भी कहे।
हम तो फिल्म 'कुंदन' का गरमा-गरम गीत सुनकर चाय पीने में विश्वास रखते हैं और आप .................