माया शब्द प्रायः तुम सभी ने सुना होगा। इसका व्यवहार साधारणतः भ्रम, भ्रान्ति अथवा इसी प्रकार के अर्थ में किया जाता है, किन्तु यह उसका वास्तविक अर्थ नहीं है। मायावाद उन स्तम्भों में से एक है, जिन पर वेद
हम यहाँ खड़े है, परन्तु हमारी दृष्टि दूर बहुत दूर, और कभी-कभी तो, कोसों दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने विचार करना आरम्भ किया, तभी से वह ऐसा करता आ रहा है। मनुष्य सदैव आगे और दूर देखने का प्रयत्न करता
जगती की मंगलमयी उषा बन, करुणा उस दिन आई थी, जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी . भय- संकुल रजनी बीत गई, भव की व्याकुलता दूर गई, घन-तिमिर-भा
अपलक जगती हो एक रात! सब सोये हों इस भूतल में, अपनी निरीहता संबल में, चलती हों कोई भी न बात! पथ सोये हों हरयाली में, हों सुमन सो रहे डाली में, हो
वसुधा के अंचल पर यह क्या कन- कन सा गया बिखर ? जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा- सा जैसे सरसिज डाल पर लालसा निराशा में ढलमल वेदना और सुख में विह्वल यह या है रे मानव जीवन? कि
जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचन्द्र दिखा जाओ ह्रदय अँधेरी झोली इनमे ज्योति भीख देने आओ प्राणों की व्याकुल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ प्रेम वेणु की स्वर- लहरी में जीवन - गीत सुना जाओ स्नेहालि
“मनुष्य का यथार्थ स्वरूप” नामक यह भाषण स्वामी विवेकानंद ने लंदन में दिया था। यह उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग का प्रथम अध्याय है। इसमें स्वामी जी ने आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण किया है कि किस तर
स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक राजयोग का यह अंतिम अध्याय है। इससे पिछले अध्याय में वे आख़िरी दो अङ्गों–ध्यान और समाधि–को भली-भाँति समझा चुके हैं। यहाँ स्वामी जी संक्षेप में संपूर्ण राजयोग को निरूप
स्वामी विवेकानंद कृत राजयोग का इस अध्याय में स्वामी जी अष्टांग योग के अंतिम दो अंगों–ध्यान और समाधि–की व्याख्या कर रहे हैं। इस अध्याय में जानिए ध्यान और समाधि का सही अर्थ, इनकी प्राप्ति के साधन और पर
राजयोग पुस्तक के इस अध्याय में स्वामी विवेकानंद महर्षि पतंजलि द्वारा निरूपित अष्टांग योग के पाँचवें और छठे अंग क्रमशः प्रत्याहार और धारणा के विषय में प्रकाश डाल रहे हैं। जिस तरह पिछले अध्याय “आध्यात्म
अब हम प्राणायाम की विभिन्न क्रियाओं के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे। हमने पहले ही देखा है कि योगियों के मत में साधना का पहला अंग फेफड़े की गति को अपने अधीन करना है। हमारा उद्देश्य है–शरीर के भीतर जो सूक्ष
स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक राजयोग का यह चौथा अध्याय है। इसमें समझाया गया है कि किस तरह प्राण कुंडलिनी शक्ति के रूप में मनुष्य शरीर में कार्य करता है और इसका तीन मुख्य नाड़ियों से क्या संबंध है
स्वामी विवेकानंद कृत “राजयोग” नामक किताब का यह तीसरा अध्याय है। पिछले अध्याय “साधना के प्राथमिक सोपान” में उन्होंने प्राणायाम के विषय को छुआ था। प्रस्तुत अध्याय में स्वामी जी “प्राण” के विषय को और विस
स्वामी विवेकानंद की विख्यात किताब राजयोग का यह दूसरा अध्याय है। स्वामी जी इस अध्याय में योग-साधना के शुरुआती सोपानों पर प्रकाश डाल रहे हैं। साथ ही प्राणायाम और प्राण के मूल अर्थ को भी इसमें बड़ी सुंदरत
यह स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक राजयोग का पहला अध्याय है। इसमें स्वामी जी अष्टांगयोग के महत्व और मूलभूत सिद्धान्तों पर प्रकाश डाल रहे हैं। योग-सिद्धि के लिए सभी आवश्यक साधनों का वर्णन उन्होंने
“गुरु और शिष्य के लक्षण” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध किताब भक्तियोग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि गुरु और शिष्य के लक्षण किस प्रकार होने चाहिए, अर्थात् सच्चे गुरु और श
पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनी
मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही, अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा, बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द
क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है भारी भोझा लाद लिया न सँभार है छल छालों से पैर छिले न उबार है चले जा रहे वेग भरे किस ओर को मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर
मेरा शहर ( कहानी अंतिम क़िश्त )अब मुकुंद थापर आबकारी मंत्री मोहन पाल की हर पब्लिक मिटिंग में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने लगा । और मोहन पाल जी के छोटी छोटी सी बातों को नोट करने लगा। वह पब्लिक म