बड़े दिनों से इस पुस्तक की तलाश थी , बड़ी मुश्किल से मिली और मैंने एकाध पृष्ठ पलट कर देखे , पुस्तक कोई नया संस्करण नहीं था ! पुराना ही संस्करण था ,जिसमे से पुरानी पुस्तक की महक आ रही थी ,जो भीनी भीनी सी थी ! और इसी महक के कारण पुस्तक पढने का वातावरण भी तैयार हो गया , गंवई भाषा को देखकर पुस्तक से अपनत्व जुड़ गया किन्तु खुद को संभाला !
कारण यह था के इस पुस्तक को एक ही बैठक में समाप्त करने की इच्छा हो रही थी ,और इस व्यस्तता भरे जीवन में यह संभव नहीं हो पा रहा था ! उन्ही दिनों किसी कार्य वश गाँव जाना तय हुवा और पुस्तको के संग्रह में यह पुस्तक भी शामिल हो गई ! और सोचा गाँव में आराम से पढेंगे ,
गाँव पहुँचते ही , जैसे ही पहली फुर्सत मिली इस पुस्तक को पकड़ा और शुरू हो गया ! गाँव पहुँचने के पश्चात इस पुस्तक को पढने का आनंद दुगुना हो गया ,क्योकि तब इसके परिवेश से स्वयम को आसानी जोड़ पाया . इस पुस्तक का नाम है ‘’कोहबर की शर्त ‘’ जिसे लिखा स्वर्गीय केशव प्रसाद मिश्र ने . इस पुस्तक को पढने के पीछे एकमात्र कारण था इस पुस्तक पर बनी फिल्म ‘नदिया के पार ‘ !
जी इसी पुस्तक पर यह फिल्म आधारित थी ,किन्तु पुस्तक में जो कहानी थी उसे उसी तरह प्रस्तुत करने की हिम्मत दिग्दर्शक लेखक शायद नहीं कर पाए, और पुस्तक के विपरीत फिल्म को एक सुखद मोड़ पर लाकर समाप्त कर दिया गया .
जबकि पुस्तक में होता इसके विपरीत है ,चरित्र वही है , चन्दन गुंजा , ओमकार , बैद जी ,काका और परिवेश भी वही ,नदी भी वही नदिया का पार भी वही ! चंदन का लड़कपन भी वही तो गूंजा का अल्हडपन भी वही , तो क्या अलग था पुस्तक में ? वह थी इसकी आत्मा ,
जी हां ,फिल्म देखकर जहा इन पात्रो के जिवंत अभिनय से मंत्रमुग्ध हो उनसे जुड़ गया था ,एवं उनके सुख दुखो में स्वयम को भागीदार मानते हुए फिल्म के एक किरदार की तरह फिल्म को जिया था ! वही इस पुस्तक को पढ़कर पता लगा के इन किरदारों एवं इनके सुखो को किस तरह ग्रहण लगा हुवा था , किस तरह चंदन का जीवन कभी न खत्म होनेवाले दुखो के अंतहीन सिलसिले से गुजरा था वह पाठको को द्रवित कर देता है ,एक ऐसे जीवन की कहानी जिसमे सुखो की मात्र क्षणिक झलक दिखलाकर नियति कभी न थमने वाली पीड़ा की सौगात दे जाती है !
ओमकार और चन्दन दो भाई है ,न बाप न माँ , माँ बाप दोनों के रूप में मिले निसंतान ‘काका ‘ !
दोनों भाइयो का आपसी प्रेम देखकर काका के हृदय में ठंडक पड़ जाती है , ‘आगे नाथ न पीछे पगहा ‘ को चरितार्थ करती जोड़ी थी तीनो की ! इन तिन मर्दों ने स्वयम को घर और खेती बाड़ी में बाँध लिया है ,यदि पडाईन मौसी न रहे तो इन्हें कोई पूछे भी नहीं , काका की तबियत खराब हुयी तो नियति चंदन को चौबेछपरा ले गई बैद जी के पास , बैद जी के घर काका की दवाई का व्यवहार शुरू हुवा तो काका की बिमारी तो ठीक हो गई किन्तु ओमकार की बिमारी का भी इलाज हो गया ,बैद की बडकी बिटिया के रूप में उसके अकेलेपन को भी सहारा मिल गया .
अच्छा रिश्ता देख बैद जी ने भी बड़ी बिटिया के लिए ओमकार का हाथ मांग लिया और बियाह भी हुवा , किन्तु इन रिश्तो के बिच एक और रिश्ता पनप रहा था, जो था चंदन एवं बैद जी की छोटी बिटिया गुंजा के बिच ! जो प्रेम में बदल गया , समय के साथ घर में एक नन्हा मेहमान आया और चंदन चाचा बन गया ! किन्तु सुखो की यह शीतल फुहार हमेशा न रह पायी और इनके सुखो को नजर लग गई जो सबसे पहले तो भाभी को सबसे अलग कर गई , इतना कम था के नियति ने ऐसा खेल खेला के गुंजा और चंदन का रिश्ता ही बदल गया ! और गुंजा इस घर की दूसरी बहु बनी किन्तु ओमकार की ही पत्नी , न चंदन कुछ कर पाया और न गुंजा , अपने इस अपराधबोध के कारण चंदन भी अवसाद में रहने लगा ! हमेशा चंचल अल्हड रहनेवाला चंदन अब हँसना भूल गया , यह दुखो का अंत नहीं था , काका का भी साथ छूटा और गाँव में महामारी फ़ैल गई जो न जाने कितने ही परिवारों को ले डूबी ! इन परिवारों में एक परिवार चंदन का भी था .
इसके बाद जो होता है वह किसी को भी द्रवित कर देने के लिए पर्याप्त है ,
150 पृष्ठों की पुस्तक कब खत्म हो गई पता ही न चला , केशव प्रसाद जी की लेखनी कमाल की है ,वे दर्द को भलीभांति उकेरते है ! ऐसा के आप स्वयम उन पात्रो के दुखो से दुखी होने लगते है ! क्या नियति इतनी भी कठोर हो सकती है ? क्षण भर सुखो का मूल्य इतने दुखो से चुकाना पड़ता है ?
पुस्तक सुख एवं दुःख के धरातल पर लिखी गई है ,जिसमे दुःख का पलड़ा भारी है ! केशव प्रसाद जी की यह पहली पुस्तक है जो मैंने पढ़ी ,जिसके बाद मुझे उनकी अन्य पुस्तको को पढने की भी तीव्र इच्छा हो रही है ! चूँकि लेखक स्वयम पुस्तक में दर्शाए गाँव के निवासी रह चुके है इसलिए गाँव का सजीव चित्रं भलीभांति किया है जो निखर के सामने आया है ! साहित्य प्रेमियों को अवश्य पढनी चाहिए ,