"धरती पर जब जब परेसानी बढ़ा है
भगवान ने तब तब एक रूप गढ़ा है"
सन 1938, देश आजादी के लिये संघर्ष कर रहा था उसी वक़्त बिहार के एक जिला सीतामढ़ी के एक टोला जो कि रेवासी और पकड़ी गाँव के बीच में पड़ता है वहाँ एक गरीब परिवार में बच्चा जन्म लिया जिसका नाम परिवार वालों ने रामेश्वर रखा, घर में वो चार भाई बहनों में सबसे छोटे थे तो उनका मान घर में खूब था लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, उनकी माता जल्द ही उनको छोर कर बैकुंठ धाम को चल पड़ीं, रामेश्वर ने ठीक से अपनी माँ का चेहरा भी नहीं देखा था, वो कहते हैं मेरी माँ हमेसा घूंघट में रहती थीं, खैर! जैसे तैसे जिन्दगी आगे बढ़ी उधर अंग्रेजों का आये दिन गाँव में आ के स्वतंत्रता सेनानियों को पीटना और अत्याचार लगा रहता था, रामेश्वर को भी ये सब देख के गुस्सा आता था, तो वो स्वतंत्रता सेनानियों के लिये गाँव में घूम घूम कर गाना गाते और अंग्रेजों को चिढ़ाते थे और जब अंग्रेज गाँव में आते उन लोगों को पकड़ने तो सब के सब खेतों में, नदी में, पुआल में छुप जाते थें उनसे बचने के लिये.
सन 1947 आख़िर वो दिन आ गया जिसका शदियों से हर भारतवासियों को इन्तजार था, हमारा देश आजाद हो गया, लेकिन रामेश्वर की समस्या अभी खत्म नहीं हुई थी, पिता जी के पास कमाई का कुछ खास जरिया नहीं था, बड़े भाई भी घर में ही बैठे थे, बीच वाले भाई जिनका नाम परमेश्वर था वो बच्चों को पढ़ा लिखा के कुछ कमा लेते थे लेकिन इतना नहीं कमाते थे कि उससे घर ठीक से चल सके, सन 1950 रामेश्वर को परमेश्वर अपने जानने वाले कुँवर जी के यहां परोस के जिला मुजफ्फरपुर के एक छोटा सा गाँव परयां में ले के आ गये, वहाँ उनके घर पर ही रहना था, उनका घर का छोटे मोटे काम करना, भैंस चराना और उनके बच्चों को पढ़ाना था, परमेश्वर, रामेश्वर को वहाँ उनके पास छोड़ कर वापस चले गये, रामेश्वर के लिये ये जगह नया था, धीरे-धीरे समय बीतता गया, घर के जो मालिक कुँवर जी थे उनको रामेश्वर अच्छा बच्चा लगने लगे तो उन्हें वो खूब मानते थे, रामेश्वर का भी स्कूल में आठवीं में दाखिला करवा दिया जहां उनके बच्चे पढ़ते थे, रामेश्वर रोज घर का काम निपटा कर अपना क़िताब और भैंसों को ले कर खेतों की तरफ निकल जाते, वहाँ भैंस पर बैठ कर पढ़ाई भी करते और भैंस भी चराते और कभी गाने का रियाज़ करते तो कभी बाँसुरी बजाते, रामेश्वर को तो गाने का शौक था ही तो वो कहीं भी भजन कीर्तन हो वहाँ गाने चले जाते, लोग आस पास के गाँव से बुलाने आते थे, उनको हरमुनीयम, बैंजो, बांसुरी, माउथ औरगन, तबला बजाने का बड़ा शौक था इसलिए हर कोई उन्हें बुलाता, उन्हें नाटक का भी शौक था तो नाटक मंडली में शामिल हो नाटक करते, पढ़ने में भी तेज़ थे तो कुँवर जी ने उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी भी दे दी, लेकिन उनके बच्चे बड़े शरारती थे तो वो पढ़ना ही नहीं चाहते थे, एक दिन रामेश्वर ने इसकी शिकायत कुँवर जी से की तो कुँवर जी ने बोला अगर बच्चे नहीं पढ़ते तो उन्हें पिटो, पर जब रामेश्वर घर पर बच्चों को नहीं पढ़ने पर पीटते तो सारे बच्चे मिलकर स्कूल जाते वक़्त रास्ते में रामेश्वर को पीट कर बदला ले लेते थे, ख़ैर जिन्दगी आगे बढ़ी, सन 1955 में रामेश्वर की शादी हुई, लड़की इकलौती थी ऊँचे खानदान से थी मगर उनकी भी माँ नहीं थी, इधर रामेश्वर ने अपनी आगे की पढ़ाई एमए पुरी की और जिस स्कुल में पढ़े उसी में सन 1958 में सरकारी नौकरी मिल गयी 60 रुपये महीने तनख्वाह पर, स्कूल जिस गाँव बाघी में था वहीँ एक मकान किराये पर ले कर रहने लगे,अब 60 रुपये में तो घर चलाना मुश्किल था तो वहीँ घर पर स्कूल के बाद आसपास के बच्चों को ट्यूशन देने लगें जिससे थोड़ी आमदनी बढ़ी, इधर परिवार भी बढ़ने लगा और खर्चा भी तो और मेहनत की स्कुल में ही एक किताब और कलम का दुकान खोल लिया, स्कूल में उन्हें लगा कि उनके पढ़ाई में कुछ कमी है तो एक और विषय में एमए कर लिया,
सन 1967 उनके पास ख़बर आई कि उनके पिताजी अब नहीं रहें, बड़े भाई ने पत्र में लिखा था कि रुपये का इंतजाम करके आना घर में रुपये नहीं है अन्तिम क्रिया करने के लिये, रामेश्वर बस रो कर रह गये, जैसे तैसे रुपये का इंतजाम किया और गाँव पहुँचे लेकिन पिता का अंतिम चेहरा नहीं देख पाये, कुछ दिन बाद बड़ी बेटी ब्याह के लायक हो गई तो उसके शादी के लिये एक जानने बाले से लड़के के बारे में जानकारी मिली और उस लड़के को देखने चले गये लड़का सकल से सांवला था और बेटी गोरी तो वो थोड़े अंदर से सकुचाते हुए अपनी बेटी से बात की बेटी बहुत समझदार थी तो उसने हाँ कर दी, सन 1979 में बड़े धूमधाम से बेटी की शादी कर दी.
रामेश्वर बड़े दयालू और खुद्दार स्वभाव के रहे हैं और खुद गरीबी देखी थी तो उनसे गरीब बच्चों का दर्द सहा नहीं जाता था इस कारण गरीब बच्चों का कभी स्कूल का फीस दे देना और घर पर मुफ्त में पढ़ाना लगा रहता था, यही नहीं अपने रिश्तेदारों और गाँव बलों को भी घर पर रख के मुफ़्त में पढ़ाया लिखाया और नौकरी पर लगवाया, खुद्दारी ऐसी की एक बार वो ससुराल गये तो उनके चचेरी सास को बात करते सुना कि अब तो ससुर का सारा जायदाद दामाद को ही मिलेगा क्यूंकि उनकी पत्नी इकलौती बेटी थी माँ भी नहीं थीं उनकी, उसी दिन रामेश्वर ने सोंच लिया कि मैं ससुराल के जायदाद का एक रुपया भी नहीं लूँगा और वही किया भी, जब ससुर जी का स्वर्गवास हुआ तो सब के सामने रामेश्वर ने जायदाद लेने से मना कर दिया और पत्नी के चचेरे भाइयों में बटवा दिया, इसका परिणाम ये हुआ के ससुराल में उनका अपना सगा कोई नहीं होते हुए भी बहुत इज़्ज़त मिला.
सन 1982 रामेश्वर का तबादला हो गया मुजफ्फरपुर शहर के एक सरकारी स्कुल में, पूरे परिवार को लेकर वो मुजफ्फरपुर के मारीपुर में एक किराये के मकान में आ गये, यहाँ उन्होंने एक क़िताब की दुकान और एक थोक कपड़े की दुकान खोली मगर वो नहीं चल पाया, कपड़े की दुकान में जिसको रखा था वही रातों रात सब चोरी कर के भाग गया, कुछ ही समय बाद स्कूल दूर होने के कारण स्कूल के नजदीक चंदवाडा में रहने आ गये, यहाँ बच्चों का दाखिला स्कूल और कॉलेज में करवा दिया, लेकिन ये घर उनको धारा नहीं रामेश्वर की तबीयत बहोत ज्यादा ही खराब हो गई उनके इलाज में बहुत रुपये लगे इधर तबीयत खराब होने के कारण छह महीने स्कुल नहीं जाना हुआ जिसके कारण तनख्वा नहीं मिला , घर में रुपये नहीं थे 11 लोगों का परिवार का पेट पालना, उनकी पढ़ाई लिखाई सब का खर्चा बहुत था, इस कारण कर्ज लेना पड़ा तब जाके इलाज हो पाया, भगवान ने उन्हें ठीक किया वो फिर से स्वस्थ हो कर स्कूल जाने लगे सब कुछ फिर ठीक होने लगा तभी मकान मालिक से कुछ अनबन के कारण वो घर छोड़ना पड़ा, वहाँ से कमरा मोहल्ला में रहने आ गये, वहाँ एक और मकान बदला, आखिर में अपने मित्र और चाहने वालों के कहने पर रामबाग में ज़मीन ले ली और अपना घर बनवाया, सन 1986 में रामबाग में गृह प्रवेश कर लिया, लेकिन ये इतना आसान नहीं था, आर्थिक रूप से रामेश्वर बहुत कमजोर हो गये थे, जमीन खरीदने और घर बनाने के लिये कर्ज लेना परा और कर्ज के बोझ में दब गये, एक कर्ज को पूरा करने के लिये दूसरा कर्ज फिर तीसरा कर्ज चलता रहा मगर वो हार नहीं माने, खूब मेहनत की, स्कूल जाने से पहले घर पर सुबह पांच बजे से ही उठ कर बच्चों को पढ़ाने बैठ जाते और आठ नौ बजे तक लगातार अगल-अलग बैच में पढ़ाते, शाम को स्कूल से निकलते तो बच्चों को उनके घर पर जाके पढ़ाते, किताबें जो लिखी थी उसको स्कूल स्कूल जाके बेचते, इस कार्य में उनके बेटों ने भी बखुबी साथ दिया, मेहनत का फल मिला इस सबसे जो रुपये मिले उससे उन्होंने सारे कर्ज चुकाए, इतना ही नहीं अपने बच्चों को भी खूब पढ़ाया सभी को स्नातक करवाया उनकी सारी इच्छायें पूरी की और उफ तक नहीं किया, अपनी सारी इच्छायें मारी बच्चों के इच्छाओं के लिए और इस काम में उनकी धर्म पत्नी ने भी बखूबी साथ दिया.
सन 1991 रामेश्वर के जिन्दगी का बहुत बड़ा साल रहा, उन्होंने जो 16 किताबें लिखी उसकी बदौलत उनको राष्ट्रपति पुरस्कार के लिये चयनित किया गया और दिल्ली में उस समय के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ आर. वेंकट रमन ने उन्हें शिक्षक दिवस के दिन राष्ट्रपती पुरस्कार दिया, सन 1992 उनकों मोतीपूर विधालय का प्रधानाध्यापक बनाया गया दो साल बाद वहाँ से उनका तबादला हुआ और लालगंज विधालय का प्रधानाध्यापक नियुक्त हुए सन 1999 में वो सरकार की शिक्षक बाली नौकरी से रिटायर हो गये, लेकिन बतौर शिक्षक से रिटायर आज तक नहीं हुए.
उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सेवा में लगा दिया जरूरतमंद बच्चों को मुफ्त शिक्षा, जरूरतमंद ल़डकियों की शादी, जरूरतमंद लोगों को आर्थिक सहायता सब किया, और ये आज भी लगातार जारी है अब भी वो अपने पेंशन से लोगों की जितना हो सके लगातार मदद करते आ रहे हैं, आज उनका समाज में एक इज़्ज़त है और रुपये तो जो भी कमाया हो पर उस से ज्यादा इज़्ज़त कमाया, आज भी वही सादगी, वही फटा कुर्ता और धोती में रहे, वर्ना आज तो एक प्राथमिक स्कूल के प्रधानाध्यापक अच्छा खासा ऊपरी कमाई कर लेता है और दिखावा में चार पहिया वाहन ले लेता है, मगर वो आज भी वैसे ही हैं, हर कोई उनके सादगी का कायल है, हर कोई उनके हिम्मत की दाद देता है, कहाँ से कहाँ का सफर हँसते-हँसते पूरा किया, सभी बच्चों की शादी कर दी, सभी बच्चे अब अपने अपने काम में लगें हैं, सब का अपना व्यापार है बस अब वो उनके साथ नहीं रहते सिर्फ बड़े बाले बेटे को छोर कर, अब पोते पतियों के साथ समय गुजर रहा है, अपने आप को वो व्यस्त रखते हैं कभी समाज की सेवा करके तो कभी अपने फार्म हाउस में बागवानी करके, तो कभी अपने बी एड कॉलेज में, तो कभी स्कूल के शिक्षकों का पेंशन बनाने में मदद करके, आज वो 80 साल से ऊपर के हो गये हैं मगर आज भी काम करने का जोश 30-35 साल बाला ही है, ऐसे जिंदा दिल इंसान को मेरा नमन है
"परेसानी से कैसे हमे जीत निकलना है
रामेश्वर जी के जज़्बे से हमे ये सीखना है"
🙏🙏🙏
✍️ स्वरचित : गौरव कर्ण (गुरुग्राम, हरियाणा)