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ठेले पर हिमालय महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ

28 फरवरी 2022

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1. ‘ठेले पर हिमालय’-खासा दिलचस्प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाये मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दुकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्म-स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे और खोए-खोए से ही बोले, ‘यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।’ और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, ठेले पर हिमालय’। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नए कवि हों तो भाई, इसे ले जायें और इस शीर्षक पर दो-तीन सौ पंक्तियाँ, बेडौल, बेतुकी लिख डालें-शीर्षक मौजूं है, और अगर नई कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है, इस बर्फ को डाँटें, उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्दरों की तरह क्यों चढ़े बैठे हो? ओ नये कवियो! ठेले पर लदो। पान की दुकानों पर बिको। 

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ. धर्मवीर भारती हैं।

डॉ. भारती ने देखा कि एक विक्रेता बर्फ की सिल्लियाँ ठेले पर लादकर लाया। उनमें से भाप निकल रही थी। लेखक के एक अल्मोड़ा निवासी उपन्यासकार मित्र को उनको देखकर हिमालय की बर्फीली चोटियों की याद आ गई।

व्याख्या-लेखक कहता है कि उसने अपने यात्रा वृत्तान्त का नाम रखा- ‘टेले पर हिमालय’। यह अत्यन्त आकर्षक शीर्षक है। इस शीर्षक को तलाश नहीं करना पड़ा। उनको यह अनायास ही प्राप्त हो गया। एक दिन लेखक एक पान की दुकान पर अपने उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था। उसी समय ठेले पर बर्फ की सिल्लियाँ लादे एक बर्फ बेचने वाला आया। मित्र ने बर्फ से उठती भाप को देखा। वह उसे देखने में लीन था। उसके मन में हिमालय के शिखर पर जमी बर्फ की याद थी। उसने कहा कि यही बर्फ हिमालय की सुन्दरता है। तुरन्त लेखक के मन में शीर्षक प्रकट हुआ ‘ठेले पर हिमालय’। लेखक इन बातों को इस कारण बताना चाहता है कि श्रोता/पाठक यदि नई कविता’ का कवि है तो इस शीर्षक पर दो-तीन सौ उल्टी-सीधी कविता की पंक्तियाँ लिख सकता है। यदि उसको नई कविता नापसंद हो और वह सुन्दर गीतों की रचना करने वाला गीतकार हो तो अपने गीत में वह इस बर्फ से सीधा संवाद कर सकता है। वह इसको डाँटकर कह सकता है कि वह हिमालय के ऊँचे शिखर पर चढ़कर बन्दरों की तरह क्यों बैठी है। नीचे उतर आए। वह कहता है कि हे नये कवियो ! ठेले पर लदो और पान की दुकान पर बिको।

2. ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आयीं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बतायीं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह बर्फ कहीं उनके मन को खरोंच गई है और ईमान की बात यह है कि जिसने 50 मील दूर से भी बादलों के बीच नीले आकाश में हिमालय की शिखर-रेखा को चाँद-तारों से बात करते देखा है, चाँदनी में उजली बर्फ को धुंधली हलके नीले जल में दूधिया समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है, उसके मन पर हिमालय की बर्फ एक ऐसी खरोंच छोड़ जाती है जो हर बार याद आने पर पिरा उठती है। मैं जानता हूँ, क्योंकि वह बर्फ मैंने भी देखी है।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक निबन्ध (यात्रावृत्त) से लिया गया है। इसके लेखक डॉ. धर्मवीर भारती हैं। लेखक कह रहा है कि हिमालय की बर्फ का आकर्षण अत्यन्त प्रबल है। उसकी स्मृति दर्शक के मन में सदा रहती है। उससे दूर होने की एक टीस, एक चुभन उसके मन में बनी रहती है। लेखक के गुरुजन मित्र के मन में जो चुभन है, उससे लेखक परिचित है।

व्याख्या-लेखक कहता है कि ठेले पर लदी बर्फ की सिल्लियाँ देखकर उसके मित्र ने उसको हिमालय की शोभा कहा तो तत्काल लेखक को ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक सूझ गया। फिर उसने उसके बारे में तरह-तरह की बातें सोची। जो बातें उसके मन में आईं वे सभी उसने अपने गुरुजन मित्र को बताईं। सुनकर वे हँसे किन्तु लेखक को लगा कि वह बर्फ उनके मन में कहीं चुभ गई है। जिसने पचास मील दूर से भी नीले आकाश में चन्द्रमा और तारों के प्रकाश में हिमालय के शिखरों पर जमी सफेद बर्फ को झिलमिलाते देखा हो तथा उसको चाँदनी में हलके नीले जल में दूध के समान सफेद समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है, उसके मन पर हिमालय की बर्फ की एक खरोंच बनी रह जाती है। जब भी उसको हिमालय की बर्फ याद आती है तो उसके मन में एक टीस उठती है। यह एक सच्चाई है। लेखक कहता है कि वह इस सच्चाई से अपरिचित नहीं है, क्योंकि उसने इस बर्फ को स्वयं देखा है।

3. अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौंदर्य बिखरा था सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कल्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है, इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुंदर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझा जाने वाली बेलों की लड़ियों-सी नदियाँ। मन में बेसाख्ता यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँ, आँखों से लगा लूँ। अकस्मात् हम एक दूसरे लोक में चले आए थे। इतना सुकुमार, इतना सुंदर, इतना सजा हुआ और इतना निष्कलंक कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए। 

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक डॉ. धर्मवीर भारती है। कुछ साथियों के साथ लेखक हिमदर्शन के लिए कौसानी जा रहा था। उसने कौसानी की प्राकृतिक सुन्दरता की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। कोसी से बस चली तो वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। इस कारण लेखक खिन्न था! वहाँ बर्फ का नामोनिशान भी नहीं था।

व्याख्या-लेखक कहता है कि वह बस से उतरा तो अत्यन्त खिन्न था। लेकिन सामने की घाटी में उसकी दृष्टि पड़ी तो देखा-वहाँ अपार प्राकृतिक सौन्दर्य भरा पड़ा था। कौसानी की पर्वत श्रेणी के बीच कल्यूर की तरह-तरह के रंगों से सुशोभित घाटी छिपी थी! लेखक ने सोचा कि प्राचीन-काल में इस घाटी में यक्ष और किन्नर नामक जनजातियों के लोग रहते होंगे। यह घाटी पचासों मील चौड़ी है। इसमें मखमल जैसे हरे-भरे खेत हैं, गेरू की सुन्दर चट्टानों को काटने से बने इसके रास्ते लाल हैं। इन रास्तों के किनारों पर पत्थरों की सफेद पंक्तियाँ हैं। इस घाटी में अनेक नदियाँ हैं जो इधर-उधर से आकर आपस में मिलती हैं। जैसे अनेक लतायें एक दूसरे से लिपट जाती हैं। लेखक ने अनायास सोचा कि वह इनको उठाये और अपनी कलाई में लपेट ले अथवा अपनी आँखों से लगा ले। अचानक लेखक इस संसार के बाहर किसी अन्य दुनियाँ में जा पहुँचा था। वह संसार इतना अधिक कोमल, सुन्दर, सुसज्जित और पवित्र था कि लेखक का मन हो रहा था। कि अपने जूते उतार ले और पैरों को पोंछकर ही उस भूमि पर पैर रखे।

4. पर उस एक क्षण के हिम दर्शन ने हममें जाने क्या भर दिया था। सारी खिन्नता, निराशा, थकावट सब छुमन्तर हो गई। हम सब आकुल हो उठे। अभी ये बादल छंट जायेंगे और फिर हिमालय हमारे सामने खड़ा होगा-निरावृत्त… असीम सौंदर्यराशि हमारे सामने अभी-अभी अपना यूँघट धीरे से खिसका देगी और… और तब? और तब? सचमुच मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। शुक्ल जी शांत थे, केवल मेरी ओर देखकर कभी-कभी मुस्करा देते थे, जिसका अभिप्राय था, ‘इतने अध पीर थे, कौसानी आया भी नहीं और मुँह लटका लिया। अब समझे यहाँ का जादू?
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक निबन्ध (यात्रावृत्त) से लिया गया है। इसके लेखक डॉ. धर्मवीर भारती हैं। 

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक निबन्ध (यात्रावृत्त) से लिया गया है। इसके लेखक डॉ. धर्मवीर भारती हैं।

लेखक अपने कुछ मित्रों के साथ कौसानी के पर्यटन के लिए गया था। कौसानी की घाटी हिमालय की पर्वत श्रेणियों में स्थित थी। वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यन्त आकर्षक तथा पवित्र था। वहाँ उसने हिमालय की बर्फ को देखा। बादलों के हटने पर उसने उस बर्फ को देखा। यद्यपि उसको देखने का अवसर लेखक को थोड़े से समय के लिए ही मिला था। इसके बावजूद उसका मन प्रसन्नता से भर गया था। कुछ समय पहले उसमें जो निराशा, थकान और व्याकुलता थी, वह एक क्षण को बर्फ में देखने से दूर हो गई थी। अब उसके मन में यह व्याकुलता थी कि अभी थोड़ी देर में बादल हट जायेंगे और हिमालय उसको साफ-सार्फ दिखाई देगा। उसके ऊपर बादलों का पर्दा नहीं होगा। हिमालय का अपार सौन्दर्य उसके नेत्रों के सामने खुल जायेगा। इसके बाद उसको कैसा लगेगा-यह सोच-सोच कर वह बेचैन हो रहा था। शुक्ल जी शांत बैठे थे। वह कभी-कभी लेखक की ओर देखकर मुस्करा उठते थे। कौसानी आने से पहले लेखक बहुत खिन्न था। वह सोच रहा था कि कौसानी को सुन्दर बताकर उसको ठगा गया है। शुक्ल जी की मुस्कान इसी ओर इंगित कर रही थी। मानो वह कह रही थी-कौसानी पहुँचने से पहले ही तुम व्याकुल हो गए, उदास हो गए। देखा, कौसानी कितना सुन्दर और आकर्षक है!

5. सिर्फ एक धुंधला-सा संवेदन इसका अवश्य था कि जैसे बर्फ की सिल के सामने खड़े होने पर मुंह पर ठण्डी-ठण्डी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रही है और सारे संघर्ष, सारे अंतर्द्वन्द्व, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं। क्यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप कहा था और उसे शमित करने के लिए वे क्यों हिमालय जाते थे यह पहली बार मेरी समझ में आ रहा था। और अकस्मात् एक दूसरा तथ्य मेरे मन के क्षितिज पर उदित हुआ। कितनी-कितनी पुरानी है यह हिमराशि! जाने किस आदिम काल से यह शाश्वत अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ है। कछ विदेशियों ने इसीलिए हिमालय की इस बर्फ को कहा है-चिरंतन हिम (एटर्नल स्नो)। सूरज ढल रहा था और सुदूर शिखरों पर दरे, ग्लेशियर, ढाल, घाटियों का क्षीण आभास मिलने लगा था। आतंकित मन से मैंने यह सोचा था कि पता नहीं इन पर कभी मनुष्य का चरण पड़ा भी है या नहीं या अनंत काल से इन सूने बर्फ ढंके दरों में सिर्फ बर्फ के अंधड़ा-ह करते हुए बहते रहे हैं।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं। लेखक तथा उसके साथियों ने डाकबंगले में अपना सामान रख दिया और बरामदे में बैठकर एकटक पर्वत शिखरों की ओर देखते रहे। उनके मन में तरह-तरह की भावनायें उत्पन्न हो रही थीं।

व्याख्या-लेखक कहता है कि मन में उठने वाली भावनाओं को बता पाना संभव नहीं था। जिस प्रकार बर्फ की सिल के पास खड़े होने पर उसकी ठण्डी भाप मुँह पर लगती है, उसी तरह हिमालय का ठंडापन उनके माथे पर पड़ रहा था। उसकी अस्पष्ट अनुभूति हो रही थी। हिमालय की शीतलता के प्रभाव से उसके मन के सभी कष्ट, संघर्ष और अनिश्चय मिटते जा रहे थे। यहाँ आकर लेखक को पहली बार यह बात समझ में आई कि पुराने तपस्वी, ऋषि-मुनि हिमालय पर इसी कारण आते थे। उन्होंने मनुष्य के तीन तरह के कष्टों का उल्लेख किया है-शारीरिक, आत्मिक तथा सांसारिक। हिमालय में उनके इन कष्टों, जिनको उन्होंने ताप कहा है, को दूर करने की शक्ति है। इन कष्टों से मुक्त होने के लिए ही वे हिमालय पर जाते थे। किन्तु अचानक एक अन्य सच्चाई उसके मन के क्षितिज जैसे पर्दे पर प्रकट हुई। उसने सोचा-यह बर्फ कितनी पुरानी है। दूरवर्ती अनादि काल से यह अमर, कभी नष्ट न होने वाली बर्फ हिमालय की चोटियों पर जमी है। इसी विशेषता के कारण कुछ विदेशियों ने इस बर्फ को ‘एटर्नल स्नो’ अर्थात् सदा जमी रहने वाली बर्फ कहा है। सूरज अस्त होने वाला था। उसके धुंधले प्रकाश में दूरवर्ती पर्वत-चोटियों पर दर्रे, ग्लेशियर, ढाल और घाटियाँ अस्पष्ट दिखाई दे रही थीं। कुछ भयभीत होकर लेखक ने सोचा कि क्या कभी मनुष्य के पैर इन बर्फीले प्रदेशों पर पड़े हैं? अथवा सदा से ही यहाँ बर्फ के तूफान भयानक आवाज करते हुए आते रहे हैं?

6. थोड़ी देर में चाँद निकला और हम फिर बाहर निकले…. इस बार सब शांत था। जैसे हिम सो रहा हो। मैं थोड़ा अलग आरामकुर्सी खींचकर बैठ गया। यह मेरा मन इतना कल्पनाहीन क्यों हो गया है? इसी हिमालय को देखकर किसने-किसने क्या-क्या नहीं लिखा और यह मेरा मन है कि एक कविता तो दूर, एक पंक्ति, हाय, एक शब्द भी तो नहीं जानता। पर कुछ नहीं, यह सब कितना छोटा लग रहा है इस हिमसम्राट के समक्ष। पर धीरे-धीरे लगा कि मन के अंदर भी बादल थे जो छुट रहे हैं। कुछ ऐसा उभर रहा है जो इन शिखरों की ही प्रकृति का है…. कुछ ऐसा जो इसी ऊँचाई पर उठने की चेष्टा कर रहा है ताकि इनसे इन्हीं के स्तर पर मिल सके। लगा, यह हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़ गया है, और मुझे-छोटे भाई को-नीचे खड़ा हुआ, कुंठित और लज्जित देखकर थोड़ा उत्साहित भी कर रहा है, स्नेह भरी चुनौती भी दे रहा है-हिम्मत है? ऊँचे उठोगे? 

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक यात्रावृत्तान्त से उद्धृत है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं।

सूर्यास्त होने पर लेखक और अन्य सभी डाकबंगले के बरामदे से उठे और चाय आदि पीने में लग गए। अँधेरा होने के कारण बाहर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। पर्वत के शिखर भी अँधेरे में डूबे हुए थे।

व्याख्या-लेखक कहता है कि थोड़ी देर के पश्चात् आकाश में चन्द्रमा उदय हुआ। उसकी चाँदनी फैल गई तो सभी लोग पुनः बाहर आ गए। इस समय सब जगह शांति फैली हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे बर्फ को भी नींद आ गई थी। लेखक ने आरामकुर्सी उठाई और कुछ दूर हटकर बैठ गया। वह सोचने लगा कि हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर भी उसके मन में भाव क्यों नहीं उठ नहीं रहे हैं? वह कल्पना-शून्य क्यों हो गया था। इसी हिमालय को देखकर अनेक कवियों ने अनेक कविताएँ लिखी हैं। किन्तु लेखक का मन कविता की एक लाइन तो क्या एक शब्द भी लिखने में असमर्थ था। लेखक विचार कर रहा था कि कविता न लिख पाना बड़े महत्त्व की बात नहीं थी। हिमालय की विशालता के सामने सब कुछ छोटा प्रतीत हो रहा था। धीरे-धीरे लेखक का मन विचार-शून्यता से मुक्त होने लगा। हिमालय की ऊँची पर्वत-श्रेणियों के स्वभाव के अनुरूप ही उसके मन में कुछ भव्य भाव उत्पन्न हो रहे थे। इन भावों में कुछ ऐसा था जो उसको हिम-शिखरों की ऊँचाई तक उठाने का प्रयत्न कर रहा था। जिससे वह उन शिखरों के साथ समानता के भाव के साथ मिल सके। लेखक को ऐसा लग रहा था कि हिमालय बड़ा भाई है। वह ऊपर चढ़ गया है। वह अपने छोटे भाई लेखक को नीचे, उत्साहहीन तथा लज्जित खड़े देखकर उसका उत्साह बढ़ा रहा है। वह प्रेमपूर्वक उसको ललकार रहा है कि क्या वह भी ऊँचा और श्रेष्ठ बन सकता है।

7. वे बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे ही क्षण में, ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने नहीं कहा था … कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो…. मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर? और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी के हाथ संदेशा भेज दूँ…. नहीं बंधु… आऊँगा। मैं फिर-लौट-लौट कर वहीं आऊँगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है… मैं करूँ तो क्या करूँ?

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक यात्रा वृत्तान्त से उद्धृत है। इसके रचयिता डा. धर्मवीर भारती हैं।

लेखक कहता है कि जब उसको कौसानी के हिमावृत्त शिखरों की याद आती है तो उसके मन में एक तरह की पीड़ा जन्म लेती है। एक दिन पूर्व उसके उपन्यासकार मित्र ने ठेले पर लदी बर्फ की सिलों को देखा था तो हिमालय के हिम को स्मरण करके उनका मन भी दर्द से भर उठा था। लेखक उनके मन की पीड़ा को समझता है। वह बर्फ की उन सिलों को ‘ठेले पर हिमालय’ कहकर हँसता है। उसकी यह हँसी उस दर्द को भुलाने का एक बहाना है।

व्याख्या-लेखक बता रहा है कि हिमालय के बर्फ से ढंके शिखर लोगों को बार-बार बुलाते हैं। किन्तु वे वहाँ न जाकर चौराहे पर खड़े ठेले पर लदी हुई बर्फ की शिलाओं को देखकर ही प्रसन्न हो जाते हैं। कभी महाकवि तुलसीदास भी ऐसे ही ठेले पर लदे हिमालयों से घिर गए थे अर्थात् सांसारिक मोह-माया ने उनको अपने आकर्षण में जकड़ लिया था। उस समय उनसे मुक्त होने का विचार उनके मन में प्रकट हुआ था और उन्होंने प्रार्थना की थी कि वह भगवान राम की कृपा से इस मोह-माया से मुक्त जीवन जीने का अवसर पायेंगे। लेखक सोच रहा है कि क्या वह भी इसी तरह वास्तविक हिम शिखरों की ऊँचाइयों पर रह सकेगा? आशय यह है कि वह जीवन के चिरंतन सत्य को जान सकेगा? वास्तविक उन्नत जीवन की कामना से प्रेरित होकर हिमालय के पास संदेश भेजना चाहता है कि वह पुनः उसके पास आयेगा। वह हिमालय को स्वयं को आने का विश्वास दिलाता है। वह कहता है कि वह बार-बार वहीं आएगा। उसका विश्वास उन ऊँचाइयों पर ही है, उसका मन वहीं लगता है। वह अपने मन को रोकने में असमर्थ है।
 

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रचनाएँ
ठेले पर हिमालय
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ठेले पर हिमालय डॉ० धर्मवीर भारती द्वारा लिखित यात्रावृत्तांत श्रेणी का संस्मरणात्मक निबंध है। इसमें लेखक ने नैनीताल से कौसानी तक की यात्रा का रोचक वर्णन किया है। इस निबंध के माध्यम से लेखक ने जीवन के उच्च शिखरों तक पहुँचने का जो संदेश दिया है, वह भी अभिनंदनीय है। लेखक एक दिन जब अपने गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ पान की दुकान पर खड़े थे तब ठेले पर लदी बर्फ की सिल्लियों को देखकर उन्हें हिमालय पर्वत को ढके हिमराशि की याद आई क्योंकि उन्होंने उस राशि को पास से देखा था, जिसकी याद उनके मन पर एक खरोंच सी छोड़ देती है। इस बर्फ को पास से देखने के लिए ही लेखक अपनी पत्नी के साथ कौसानी गए थे। नैनीताल से रानीखेत व मझकाली के भयानक मोड़ों को पारकर वे कोसी पहुँंचे। कोसी में उन्हें उनके सहयात्री शुक्ल जी व चित्रकार सेन मिले जो हृदय से बहुत सरल थे। कोसी से कौसानी के लिए चलने पर उन्हें सोमेश्वर घाटी के अद्भुत सौंदर्य के दर्शन हुए। जो बहुत ही सुहाने थे, परंतु मार्ग में आगे बढ़ते जाने पर यह सुंदरता खोती जा रही थी, जिससे लेखक के मन में निराशा उत्पन्न हो रही थी क्योंकि लेखक के एक सहयोगी के अनुसार कौसानी स्विट्जरलैंड से भी अधिक सुंदर था तथा महात्मा गाँधी जी ने भी अपनी पुस्तक अनासक्तियोग की रचना यहीं की थी।
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ठेले पर हिमालय

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ठेले पर हिमालय' - खासा दिलचस्‍प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्‍यासकार मित्र के साथ खड़ा था क

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ठेले पर हिमालय महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ

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1. ‘ठेले पर हिमालय’-खासा दिलचस्प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाये मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दुकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था क

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कौसानी तक की यात्रा का वर्णन

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लेखक ने यह बात अपने निबंध के शीर्षक के बारे में कही। लेखक अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ पान की दुकान पर खड़ा था। वहाँ एक बर्फ वाला ठेले पर बर्फ की सिल्लियाँ लाद कर लाया। बर्फ में से भाप उड़ र

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