वृद्ध दंपति द्वारा आत्महत्या
...
दुर्भाग्यपूर्ण घटना –हल्द्वानी
...2018…
( भाव= काल्पनिक )
जैसे-जैसे आज शाम ढलने लगी,
रोज़ की तरह दीपक की, लौ
जलने लगी,
पत्नी की एकटक आँखें, डब- डबा रही थी,
घर की एक-एक चीज़, आँखों में उतर-आ रही थी,
दोनों ने
मिलकर जाने कैसा , अभागा निर्णय
ले लिया,
फूलों जैसे सुनसान घर को , एक प्रलय दे दिया,
सच बताओ, तुम्हें
बच्चों की याद नहीं आती है ,
मेरे हाथ कंपकपाते
हैं, हिम्मत
टूटी जाती है,
देखो ना,…
पैदा होते ही गालों पर, वो नर्स का दुलार,
दूध पीते हुए
पैरों से , छाती पर वार ,
खुद सोते हुए गीले
पर उसे, आँचल का आधार ,
तुतलाती बोली में करती, काजल से श्रंगार,
लिए हुए गोदी पर घंटों, डॉक्टर का इंतज़ार ,
आधी रात तक एक-एक
उत्तर, रटाती बार-बार,
जब पास हो जाते, बलैयां लेती हुई हज़ार,
बहू घर आई, खुशी से, झूमता घर - संसार,
और जब दादा-दादी बने, हुआ वंश का उद्धार ,
एक –एक घटना आँख की पुतली पर उतर आती है ,
सच बताओ, तुम्हें बच्चों की, याद
नहीं आती है ,
देखो
मुझे जहर खिलाकर, तुम
अकेले न रह जाना,
तुम्हारा दिल बहुत कमजोर है, बाद
में न पछताना ,
अब सोच ही लिया , चाहो तो मैं पहले तुम्हें सुला
दूँ ,
एक आंखरी बार और , अपने गले
पे झुला लूँ ,
अकेले तो तुम बहुत, कमजोर पड़ जाओगे,
अपनी डूबती साँसों का बोझ , कैसे उठाओगे,
तुम बहुत
जिद्दी हो, अब जाते हुए भी लड़
जाओगी,
अपनी सासों को भी सुहागिन, ,विदा न
कराओगी,
या आज तक तुम्हें मुझ पर, ,विश्वास नहीं हो पाया,
फिर कहोगी तुमने सात जन्मों तक, ,साथ नहीं निभाया,
इससे पहले कि हमें अपने बच्चों की, ,याद आ जाये ,
चलो जल्दी करो ना , कहीं हमारा मन न बदल जाये,
अच्छा बताओ , उस
कागज़ में तुमने ,सब कुछ तो लिख दिया है,
जिसमे ज़मीन के कागजाद, बैंक का पैसा, जो एफ़
डी किया है,
देखना बच्चों को कोई परेशानी न हो जाये,
हमारी इच्छा मृत्यु है,साफ जाहिर हो जाये ,
तुम नौकरी छोड़
आते,,या हमें संग ले जाते,
हम अपनी परवरिश की कीमत, तुम्हें कैसे बताते,
लिखना... ये ढलती हड्डियां, अब झुर्रियों का बोझ नहीं सहती है,
तुमसे कोई शिकायत नहीं, तुम्हारी माँ , ज़हर पीते-पीते कहती है,
और
बेटा जैसे –जैसे बुजुर्गों की उम्र बढ़ती है,
तो वो बच्चे, और बच्चे,
और बच्चे हो जाते हैं,
और जब थक जाते हैं तो, खुद को टूटा हुआ , खिलौना समझ कर, आग लगा जाते हैं । जिसने पाला पोशा, जिसने
एक खरोंच तक न आने दी, उनको इतना अनाथ किया, कि आग तक लग जाने दी, मदन पाण्डेय ‘शिखर’