मैं भावों की पटरानी,
क्या समझेगा मानव गरीब, मेरी यह अटपट बानी?
श्रम के सीकर जब ढुलक चले,
अरमान अभागे झुलस चले,
तुम भूल गये अपनी पीड़ा, जब मेरी धुन पहचानी।
जिस दिन तुम भव पथ डोल चले,
विष का रस जी में घोल चले,
तब मैं निज डोरी खींच उठी, तुममें जग उठी जवानी।
तुमने संकट पथ वरण किये,
कारागृह कण्ठाभरण किये,
मैंने जब मृदु दो चरण दिये, तुमने बन्धन छवि जानी।
जी के हिलकोरों के शिकार
दृग मूँद उठे तुम सहस बार
तब चमका कर पथ के फुहार, मैं बनी रूप की रानी।
तुम थकन आँसुओं घोल-घोल
कर उठे मौत से मोल-तोल
तब लेकर मैं अपना हिंडोल, अमृत झर बनकर मानी।
तुम बन शब्दों के आल-जाल,
आराध उठे गति-हरण-काल
तब मैंने मुरली ले फूँकी, गति-पथ पर प्रगति-कहानी।
मैं भावों की पटरानी।