हां वो मासूम ही तो थी। नाम भी था भोली। दुनिया के तीन पांच न समझने वाली। बात को घुमा फिरा कर कहना न उसे आता था और न ही समझना। दुनिया की अपना उल्लू सीधा करने की गणित उसे आती ही कहां थी। ?
इसीलिये लोग शायद उसे बेवकूफ समझते थे। उससे उससे घर की बातें घुमाफिरा कर पूछ लेते थे फिर, घर वालों से कहते कि तुमने तो ऐसा कहा था ,पर वो तो ये बता रही थी।
घर में मां की चाची के घर से न निपटती । दोनों के रोज़ झगडे़ होते । दोनों के घर का आना जाना न था पर वो चाची के घर जाती । कहती तुम लोग लडो़ ,मेरी तो चाची हैं मैं क्यों न जाऊं?
सब उसकी मासूमियत का लाभ उठाकर घर का काम उसी से करवाते। वो दिन भर काम करती । थक जाती , भूख लगती तो बैठकर किसी कोने में रोने लगती। कोई उससे बात न करता ये कह कि इससे कौन सी व क्या बात करूं ? ये समझ कहां पाती है?
गांव में किसी के भी घर छोटा मोटा उत्सव होता तो लोग न्योता देने घर आते व उससे धीरे से कह जाते " आना जरूर, तुम न आओगी तो अच्छा न लगेगा "। वह जाती तो उससे दिन भर घर का काम कराते फिर कुछ थोडा़ बहुत हाथ पर खाने को रख देते । वो रोती घर में सब पूछते तो बताती " दिनभर काम कराया पर पेट भर अच्छी अच्छी चीजे़ खाने को भी न दीं , मैने देखा था सबको ज्यादा दिया ।" घर के लोग शिकायत भी किससे और क्या करते जब वही सब भूलकर फिर लोगों के घर उनके धीरे से कहने पर फिर पहुंच जाती कि " तुम न आओगी तो अच्छा न लगेगा।"
एक रोज़ ऐसे ही किसी के घर जन्मदिन का उत्सव था ।वह घर न्योता देने आये व सदा की भांति उससे धीरे से कह गये " तुम न आओगी तो अच्छा न लगेगा ।" मां ने सुन लिया ,बोलीं " तुम घर पर ही रहो , वहां बैलों की तरह जुटी रहोगी " पर वो भोली ,बोली " अरे अपने ही तो हैं सब । कितना प्यार से कहते हैं जरा़ ये कर दो तो कैसे मना कर दूं?" । घर से कोई न गया क्योंकि उनके यहां का ज्यादा आना जाना न था । बस न्योता पानी शादी वगैरा में । उससे भी मना किया गया पर वह चुपके से चली गयी।
सूर्य देव सिर पर चढ़ आये थे । कोई कहता ये कर दो तो कोई कहता जरा ये काम कर लो । सुबह से शाम हो आई थी उसे काम करते पर उस दिन तो उससे पानी को भी न पूछा गया था। काम इतना कि घर भी न जा सकी थी। उसे बहुत भूख लगी थी। बहुत हिम्मत करके घर की किसी औरत से कहा " कुछ खाने को दे दो , बहुत भूखी हूं।"
" रूक जा ना , कि पेट गिरा जा रहा , मेहमानों को तो खाने दे पहले " चिल्लाकर कहा उस औरत ने और वह सहम गयी । जाकर एक कोने में अंधेरे में बैठ गयी और रोने लगी। उसे पता था कि घर में खाना खत्म हो गया होगा।
अचानक उसे एक भगौने में रखे गेहूं दिख गये जो शायद पिसाने को रखे हों । भूख बरदाश्त से बाहर हो गयी थी । आंखों के आगे अंधेरा सा छा रहा था । और उसने मुट्ठी भर भर कर गेहूं खा लिये व घर आ गयी।
उस मासूम को क्या पता था कि कच्चे गेहूं पेट में फूल जायेंगे । गेहूं पेट में फूल गये । बेतहाशा दर्द हुआ । और आखिर उसने दम तोड़ दिया ।
उस मासूम को न पता था कि इस दुनिया में उस जैसों के लिये कोई जगह नहीं।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '