यादों में बसा मेरा बचपन
मेरा बचपन जिसको मैंने कभी भूला ही नहीं ,अपनी यादों में संजो कर रखा है ,जो मेरी सुनहरी यादों में कस्तूरी सा महकता रहता है ।हर समय यादों के झरोखों में बसने वाली मुझे बचपन याद ना आए ऐसा हो नहीं सकता ।
हमारा बचपन फोन वाला बचपन नहीं था हमारा बचपन चिट्ठियों वाला बचपन था किसी के भी घर कोई रिश्तेदार और जानकार अचानक आकर सबको आनंद से सराबोर कर देता , छुट्टियों में हम सब बच्चे नानी के घर जाते ,नानी के घर में सबको ,हम सब बच्चों की छुट्टियों का इंतजार होता ,हम सबके बीच टीवी ना होता फोन ना होता, बस होता तो बातों और मस्ती का पिटारा ,नानी तरह-तरह के खाने पीने से हमारा स्वागत करती और मामा मौसी हमारी छुट्टियां हर तरीके से यादगार बनाने की कोशिश करते ,
औपचारिकता का शब्द ना होता आज भी याद आता है नानी दोपहर में ठाकुर जी का भोग लगाकर हम सबको इकट्ठा बैठा कर खाना परोसतीं और हम सब एक साथ बैठकर खाना खाते ,और दोपहर में बातों का पिटारा खोल कर बैठ जाते ।बहुत याद आते हैं वह बचपन के दिन आज फोन पर कितनी भी बातें कर ले पर बातों के मिठास की खुशबू नहीं आती
नानी के कमरे में आला था जिसमें उनके ठाकुर जी रहते थे पास में एक छोटी सी अलमारी थी जिसमें जाने क्या-क्या समेटे नानी रहती थी ,उस अलमारी में रखा हुआ एक छोटा सा इलायची दान आज भी याद आता है जिसमें सौंफ मिश्री लोंग इलाइची रहती थी जो हम सबको अप्रतिम मिठास प्रदान करती थी ,नानी के हाथ के खाने का स्वाद आज भी इस जीभ को याद है ,पता नहीं कौन सा आशीर्वाद हमारी दादी नानीयों के पास था कितने भी लोग आ जाएं घर पूरा रिश्तेदारों से भरा हो ठाकुर जी ने दादी नानीयों के हाथों में ऐसी बरकत दे रखी थी कितने भी लोग बहन बेटियां उन सब के बच्चे रिश्तेदार सब इकट्ठे हो जाए इतना अच्छा खाना तरह तरह का बनाती थी कभी भी कम न पड़ता था और सबको आनंद देने वाला होता था उतना ही आनंद उनकी आंखों में दिखता था जैसे साक्षात मां अन्नपूर्णा हमें भोजन करा रही हो, हम सब बच्चों के लिए बहुत मस्ती भरे हुए दिन होते थे हमारी मम्मी मौसी मामा मामी ऐसे मिलते थे जैसे कोई उत्सव मना रहे हो बच्चों को घुमाने का काम मामा मौसीयों का होता था बच्चों को घुमाते घुमाते मामा मौसी भी बच्चे बन जाते थे एक साथ जहां भी हमारी टोली गुजरती वहां उल्लास ही उल्लास होता ,
नानी के घर से आकर बुआओं को देखकर मन प्रसन्नता से ओतप्रोत हो जाता बुआ की आड लेकर छोटी मोटी शरारतों की परवाह न होती देर रात तक बातों के बीच खुली छत पर कब आंखों में नींद आती पर सुबह जल्दी जागकर नए दिन को आनन्द के आवरण में ढकने को प्रफुल्लित नजर आते, घर आई बुआ को तरह तरह के पकवानों से प्रसन्न किया जाता बुआ का काम हम सब बच्चों के साथ बचपन बांटना होता ,जितने भी दिन बुआजी रहतीं समय भी आनन्द मनाता हुआ सा ठहरा ठहरा सा लगता ।
सच में बहुत ही खुशनुमा दिन थे, जब भी याद करो तो पिक्चर सी चल पड़ती है ,मन करता है एक बार फिर से अपने बीते हुए जिन्दगी के सुनहरे बचपन की मनोहारी यादों में विचरती फिरूं ।
नहीं था आपस में बात करने के लिए मोबाइल, नहीं थे मनमुताबिक टीवी के चैनल, नहीं थी फाइव स्टार होटलों की झलक, पर हम सब ,हम सब की सोच ,हम सब का रहन सहन घर के सभी बडों के अनुशासन से सुसज्जित रहा ।
आज के बच्चों को मोबाइल में विंधें देख अपना बचपन एक यादगार उपन्यास की तरह याद आता है जिसको बार-बार पढ़ने का मन करता है और मन करता है आधुनिक जीवन शैली मोबाइल में ही सब कुछ समझने वाली नई पीढ़ी को अपनी यादों के झरोखों से उस उपन्यास को एक प्रस्तुति की तरह प्रस्तुत करूं।
मेरे बचपन
सादर अभिवादन
जया शर्मा