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'मां मुझे कोख मे ही रहने दो

16 जनवरी 2024

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'मां मुझे कोख मे ही रहने दो'

डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो।
पग - पग राक्षसीं गिद्ध बैठे हैं,
मां मुझे कोख में ही मरने दो।

कदम पड़ा धरती पर जैसे,
मिले मुझे उपहार मे ताने।
लोग देने लगे नसीहत,
फिर से लगे बाते बनाने।
मत करना फिर सौदा मेरा,
खुशी- खुशी विदा होने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

बेटा जैसा समझा नहीं,
बेटी का हक भी मिला नहीं।
मेरे सपनों का पंछी भी,
आसानी से कभी उड़ा नहीं।
खुशियां हुई दामन से दूर ,
जी भर कर आंसू बहने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

बाहर भी निकली लोगों ने,
कामुक भरी नजरों से देखा।
मंजिल तक जाने से पहले,
कौन? खींच गया लक्ष्मण रेखा।
पंछी नहीं मैं पिंजरे की,
खुले अम्बर में उड़ने दो,
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

रीत पुरानी कैसी है ये?
बेटी सिर पर बोझ होती है।
जीते जी ससुराल में भी,
सिसक - सिसक कर वो रोती है।
सदा ही चुप रहना सीखा,
अब तो मुझे कुछ कहने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

चाहा कुछ बड़ा करना तो,
अपनों ने तब हाथ छुड़ाएं।
छूना चाहा अम्बर को तो,
पैर जमीन पर डगमगाए।
लड़की हूं बढ़ सकती हूं,
निरंतर आगे बढ़ने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

बेटा- बेटी एक विधान,
फिर भी क्यों भेद करते हो।
बेटी बचाओ और पढ़ाओ, 
क्यों बनावटी खेद करते हो।
छोड़ो हम पर हावी होना, 
सुखी माहौल में पलने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

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