शीर्षक - समर्पण
हम सभी जानते हैं समर्पण और किसी की प्रति अपने आप को न्योछावर कर देना जीवन का यही समर्पण बहुत कम देखने को मिलता है आजकल तो बहुत धोखा और छल फरेब मिलता है। जीवन के सच में आजकल हम समर्पण का मतलब भूल सकें क्योंकि हम सभी लोग अपने जीवन में मतलब और स्वार्थ के लिए सभी से संबंध और रिश्ते रखते हैं।
जीवन के सच में समर्पण का मतलब हम सभी हम सभी एक जीवन एक दूसरे की भावनाएं और एहसास और एतबार तवार को समझ सकें। समर्पण का दूसरा नाम है त्याग और बलिदान है और एक दूसरे प्रति समर्पण की भावना भी यही होती है आओ एक कहानी पढ़ते हैं
सुनीता एक अच्छे परिवार की जवान लड़की है और उसके परिवार में सभी लोग आधुनिक हालातो के थे सुनीता अपने घर में सबसे बड़ी थी उसके बाद उसका भाई संजय और फिर उसकी छोटी बहन अनीता सुनीता के पिताजी एक शुगर मिल में इंजीनियर थे। और मां एक स्कूल टीचर थी सुनीता ने अपनी शादी के लिए अब तक विचार नहीं किया था जबकि सुनीता की उम्र 25 साल की बीच थी उधर उसके माता-पिता कहते थे बेटा जब तक तुम्हारी शादी नहीं होगी तो थोड़ा छोटे भाई बहन की शादी कैसे करते हैं सुनीता कहती है पिताजी मेरी शादी की चिंता नहीं है आप अनीता की और संजय शादी कर दीजिए। जैसे तेरी मर्जी परंतु अगर तेरे दिल में दिमाग में कोई लड़का हो तो बता दे हम तेरी शादी उसी से कर देंगे सुनीता एक कृष्ण भक्त हो चुकी थी उसे मीरा और राधा दोनों का चरित्र अच्छा लगता था परंतु वह अपने परिवार के विचारों से बिल्कुल अलग थी समय बीतता है संजय और अनीता अपनी अपनी शादी कर लेते हैं और अपने जीवन को स्थिर कर लेते हैं शायद यह कुछ दिनों बाद एक दिन पिता को माता जी को ट्रेन एक्सीडेंट में उनकी मृत्यु हो जाती है अब सुनीता से संजय और अनीता कहते हैं। माता-पिता की मृत्यु के बाद अब तो यह मकान रह गया है और आपने तो शादी भी नहीं करी है और आप तो वैसे भी संन्यासियों का जीवन बीता रही है। हमारा तो घर बार और परिवार है आप इस मकान को बेचकर हम तीनों का हिस्सा कर लीजिए और आप अपने जिंदगी जीने के लिए आजाद हैं और हम अपनी जिंदगी के लिए जीने के लिए आजाद हैं ऐसा भाव सुनकर सुनीता को बहुत मन में दुख पहुंचता है कि सगे भाई बहन मेरे समर्पण को वह अब ऐसा समझते हैं जबकि सुनीता ने अपने पिताजी से आता पिताजी शादी में बहुत पैसा लगता है और अगर सारा पैसा मैं ही अपनी शादी में लगवा लूंगी तो संजय और सुनीता को कौन देखेगा परंतु यह बात पिताजी ने संजय और अनीता को नहीं बताई थी और उसे पैसे से संजय और अनीता को शादी और काम करवा दिया था अचानक से माता-पिता की मृत्यु होने से सुनीता का समर्पण अपने माता-पिता के देहांत के साथ ही खत्म हो गया। कहती है ठीक है संजय भैया अनीता हम मकान भेज देते हैं परंतु मकान की कागज तो बैंक में गर्मी है तब सुनीता संजय और अनीता को एक सच बताती है की मैं भी शादी करना चाहती थी परंतु मेरी शादी के बाद सारा पैसा मेरी शादी में ही लग जाता और तुम दोनों का जीवन पीछे हो जाता इसलिए मैंने पिताजी से तुम सबसे मीराबाई और राधा रानी की कहानी को कहा था परंतु अब जब माता-पिता नहीं रहे और तुम लोग मकान को बेचकर हिस्सा चाहते हो तब उसे हिस्से के लिए तो मकान को बैंक से छुड़ाना पड़ेगा मैं तो अपनी प्राइवेट नौकरी में धीरे-धीरे कर कर बैंक कर्ज अदा कर र रही थी कि तुम दोनों को माता-पिता की कमी महसूस ना हो यही मेरा एक समर्पण था कि मैं अपने जीवन को तुम दोनों की खुशियों में समर्पित कर दूं छोटे भाई और बहन को एक माता-पिता का प्यार एक बड़ी बहन दे सके।
ऐसा विषय सुनकर संजय और अनीता भी बहुत दुखी हो जाते है। और सुनीता दीदी से कहते हैं। दीदी हमें माफ कर दो हमें नहीं मालूम था कि आपने हमारे जीवन के लिए ऐसा समर्पण किया है। आज से हम दीदी कभी मकान बेचने को नहीं कहेंगे और आप जैसा उचित समझें वैसा करती रहें ऐसा कहकर संजय और अनीता अपने अपने कमरे में चले जाते हैं और सामान लेकर अनीता अपनी ससुराल चली जाती है संजय कहता है दीदी अब मैं भी आपके साथ उस कर्ज को अदा करने में सहयोग करूगा । सुनीता संजय की बात सुनकर बहुत खुश होती है और कहती है ठीक है। बस सुनीता मन में अपने संजय और अनीता की बात को मन में रख लेती है और वह धीरे-धीरे समय अनुसार कर्ज अदा करती रहती है और एक दिन वह अपने माता-पिता का मकान भी बैंक के कर्ज से मुक्त करा लेती है।
सुनीता रात दिन मेहनत करने की वजह से कमजोर और बीमार रहने लगती है परंतु वह अपने भाई संजय और बहन अनीता से कुछ नहीं रहती है और वह बैंक से मकान के कागज निकाल कर वह मकान संजय की 3 महीने की बेटी के नाम और अनीता के बेटे को एक हिस्सा लिख देती है और वह वसीयत के तौर पर अपने लिए कुछ भी नहीं लिखती है और एक दिन संजय और अनीता जब घर आते हैं तो देखते हैं सुनीता दीदी का कमरा खुला हुआ है और वह सोचते हैं पता नहीं आज दीदी कमरा खोल के क्यों सो रही है और वह दोनों दीदी के कमरे में जाते हैं तो दीदी के हाथ में एक लिफाफा होता है और दीदी आराम कुर्सी पर पीछे की तरफ मुंह कर कर बैठी होती है। संजय दीदी को आवाज लगता है दीदी दीदी परंतु दीदी कोई उत्तर नहीं देती है तब संजय आगे बढ़कर दीदी की कुर्सी को घुमाता है और देखता है दीदी की आंखें खुली है वह यह देखकर बदहवास हो जाता है। अनीता अनीता दीदी को क्या हो गया। अनीता दीदी को देखकर और रोने लगती है और संजय दीदी के हाथ का लेटर खोलता है। जिसमें मकान की वसीयत के कागज होती है जो कि संजय और अनीता के नाम हिस्सेदारी लिखी होती है और कुछ लिफाफे में उसमें डॉक्टर की दवाइयां के पर्ची होती है और उन दवाइयां की परिचय से मन चलता है कि दीदी काफी दिनों से बीमार थी और उन्हें दिल की बीमारी थी और आज दीदी को दिल का दौर से दीदी की मृत्यु हो गई और वह शायद यह लिफाफा हमें देने ही जाती थी ऐसा समर्पण दीदी का देख संजय और अनीता दोनों दीदी से चिपट कर रोने लगते हैं। परंतु आप बहुत देर हो चुकी थी दीदी का समर्पण अब उनकी समझ में आ चुका था।
नीरज अग्रवाल चंदौसी उ.प्र