बंद आँखों से वो मंज़र देखूँ
रेग-ए-सहरा को समंदर देखूँ
क्या गुज़रती है मेरे बाद उस पर
आज मैं उस से बिछड़ कर देखूँ
शहर का शहर हुआ पत्थर का
मैं ने चाहा था के मुड़ कर देखूँ
ख़ौफ़ तंहाई घुटन सन्नाटा
क्या नहीं मुझ में जो बाहर देखूँ
है हर इक शख़्स का दिल पत्थर का
मैं जिधर जाऊँ ये पत्थर देखूँ
कुछ तो अंदाज़-ए-तूफ़ाँ हो ‘अमीर’
नाव काग़ज़ की चला कर देखूँ
-अमीर क़ज़लबाश