या बाँसुरी ही बाँस की,
है साक्षिणी तेरी सरस
संजीवनी-सी साँस की ।
क्या मन्त्र फूंका कान में,
बस, बज उठी यह आन में!
उस गान में, उस तान में,
गहरी गमक थी गाँस की।
यह बाँसुरी ही बाँस की।
कैसी करारी कूक थी!
आह्वान-युक्ति अचूक थी;
उठती हदय में हूक थी
फिर फिर उसी की फाँस की;
यह बाँसुरी ही बाँस की।
मृदु अंगुलियाँ बचती रहीं,
ध्वनि-धार पर नचती रहीं,
श्रुति-सृष्टि-सी रचती रहीं,
क्या है कुशलता काँस की ?
यह बाँसुरी ही बाँस की।
निस्सारता हरकर हरे,
वे छिद्र सब तूने भरे,
क्या स्वर-सुधा-निर्झर झरे !
मैं बलि गयी उस आँस की,
यह बाँसुरी ही बाँस की ।