प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?
जब इस जनाकीर्ण जगती में
एकाकी रह जाते हैं ।
जब तक स्वजन संग देते हैं,
हम अपनी नैया खेते हैं,
तब तक हम तुम उभय परस्पर
नहीं कभी सुध लेते हैं।
पर ज्यों ही नौका बहती है,
हम में शक्ति नहीं रहती है,
देख भौंर में तब हम उसको
रोते हैं चिल्लाते हैं ।
प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?
जब तक भोग भोगते धन से,
और सबल रहते हैं तन से,
हम मदान्ध सम तब तक तुमको
भूले रहते हैं मन से ।
पर जब सब धन उड़ जाता है,
रोगों का दल जुड़ आता है,
तब हम तुम्हें याद कर करके
बिलख बिलख चिल्लाते हैं ।
प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?
पाते हैं तुमको अनुरागी,
पर होकर भव तक के त्यागी,
देख नहीं सकते हो हममें
तुम कोई निज भागी ।
तुमसे अधिक कौन धन होगा,
और कौन तुम-सा जन होगा,
इसीलिए तुम-मय होकर हम
पास तुम्हारे आते हैं ।
प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?