बचपन में देश-विदेश के राजा-महाराजाओं की कहानियां सुनने-पढ़ने में बड़ा आनंद मिलता था। जो राजा-महाराजा अपनी प्रजा की खुशहाली और उनके सुख-दुःख की चिंता-फ़िक्र कर राजकाज करते थे, उनकी कहानी पढ़कर मन बड़ा हल्का लगता था लेकिन जो राजा अपनी प्रजा पर अत्याचार करते थे, उनकी कहानी पढ़ते-पढ़ते ऐसा गुस्सा आता था कि अगर वे सामने होते तो उन्हें सबक सिखाये बिना छोड़ते नहीं। खैर बालमन में ऐसी भावनाएं आती-जाती रहती हैं।
लेकिन तब कहाँ ऐसे धूर्त, अत्याचारी, निरंकुश राजाओं से पार पाना किसी के बूते में था, स्थिति इतनी भयावह रहती कि अगर भूल से भी किसी ने राजा के विरुद्ध आवाज उठाने की कोशिश भर की नहीं कि उसे उससे पहले ही धरती से इस तरह उठा लिया जाता कि सम्पूर्ण मानवता कराह उठती। तब दयालु, परोपकारी, सदाचारी प्रजापालक राजा हों या निर्मोही, अत्याचारी, निरंकुश सब अपना-अपना शासन चलाते थे और उनकी मृत्यु उपरांत उनकी राजगद्दी के उत्तराधिकारी उनके पुत्र होते थे। इस परम्परा को राजवंश कहा जाता था। जहाँ यह वंश बेल की तरह आगे बढ़ती जाती और उनका राजकाज चलता रहता था।
आज हमारे देश में भले ही प्रयत्क्ष रूप से राजा-महाराजा देखने को नहीं मिले, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप में आज भी इनका अस्तित्व कायम हैं, जहाँ जनता अपने बीच से इनका चुनाव कर शासन करने के लिए राजगद्दी तक पहुंचाती है। जहाँ इन शासकों के शरीर का अंगों की तरह उन्हें चलाने के लिए बड़े-बड़े सिपहसालार जो इनके सिर,आंख, नाक, कान, हाथ- पैर होते हैं, इन्हें चलाने का काम करते है और वे सब मिलकर शासन-प्रशासन में भाई-भतीजावाद का खेल खेलते रहते हैं। यहाँ 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं' की तर्ज पर निर्बाध होकर काम-धाम चलता रहता है और अपने-पराये की पहचान कर 'अँधा बांटे रेवड़ी , फिर फिर अपने को दे" की तरह अपने ज्यादा से ज्यादा फायदा भाई-भतीजों को लाभ पहुंचाने का खेल चलता रहता है। क्योंकि शासक के तो आंख,नाक, कान होते नहीं है वह तो वही देखता, सुनता है जो उसे दिखाया-सुनाया जाता है, इसलिए उसे अंधे व्यक्ति की तरह हर दिन अपने वातावरण और उसमें रहने वाले आसपास के लोगों की पहचान भर याद रहती हैं।
आज देश में भाई-भतीजावाद खूब फल फूल रहा है। भले ही इसे बदलने की बात शासन-प्रशासन चलाने वाले जोर-शोर से उठाते हैं लेकिन फिर वही होता है जब कोई उनके जैसा नहीं मिलता है तो फिर 'सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे'' और ''चोर-चोर मौसेरे भाई' एक साथ मिलने में ही अपनी भलाई समझते हैं और फिर भाई-भतीजावाद 'जिन्दावाद-जिन्दावाद' का नारा बुलंदी होता है और फिर माथे पर राजयोग लिखाकर आये लोग सत्ताधीश बनकर शासन प्रशासन में भाई-भतीजावाद का खेल बदस्तूर चलाते रहते हैं। यहाँ यह बताने की शायद जरुरत महसूस नहीं कि देश का कौन सा क्षेत्र आखिर 'भाई-भतीजावाद 'से अछूता है?
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