समाज और संस्कृति मानवता के दो आधार स्तम्भ होते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसके बिना उसका न केवल विकास अपितु जीवन भी मुश्किल होता है। संस्कृति को मानवीय आदर्शों, मूल्यों, स्थापनाओं एवं मान्यताओं का समूह माना जाता है। संस्कृति किसी भी देश, समाज या जाति की अंतरात्मा होती है। इसके द्वारा ही उसके समस्त संस्कारोँ का बोध होता है। संस्कृति ही हमें पशुओं से भिन्न करती है, एक ऊँचे स्तर पर ले जाती है। मानव शास्त्र का इतिहास यह प्रमाणित करता है कि मानव-जाति अपने आरंभिक काल में पशुओं की तरह ही जीवन व्यतीत करता है लेकिन कालांतर में जैसे-जैसे वह प्रकृति और अन्य प्राणियोँ से जुड़ता गया, उसकी बुद्धि विकसित होती चली गयी और उसकी ज्ञान-चेतना जागृत हुई। ज्ञान-चेतना के इसी जागृति ने मानव हृदय में वह उमंग भर दी कि वह विश्व के साथ घुला-मिला और उसने प्रेम का विस्तार किया, जिससे उसकी जीवन-भूमि उल्लास, पवित्रता और सुंदरता से परिपूर्ण हो उठी। मानव की यही उमंग जो धर्म, दर्शन, काव्य और कला बनकर व्यक्त तथा विकसित हुई, उसे ही संस्कृति कहा जाता है।
मनुष्य जीवन में संस्कृति का क्या महत्व है? इस बारे में डॉ. देवराज ने इसे मानव-मात्र के परम मूल्य के रूप में स्वीकार किया है, जिसका समर्थन करते हुए 'अज्ञेय' लिखते हैं कि ' संस्कृतियां मूल्यों की सृष्टि करते हैं। ठाकुर रवीन्द्र नाथ इसे ' मस्तिष्क का जीवन ' मानते हैं। इसे सरल और सटीक शब्दों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त 'हिन्दू' में लिखते हैं कि-
युग-युग के संचित संस्कार, ऋषि मुनियोँ के उच्च विचार।
धीरों-वीरोँ का व्यवहार ऐन निज संस्कृति के श्रृंगार।।
सभ्यता और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे सुमित्रानंदन पन्त ने अपनी आस्था कविता में बहुत ही सुन्दर ढंग से समझाया है कि -
प्रखर बुद्धि से भले
सभ्यता हो नव-निर्मित
संस्कृति के निर्माण के लिए
हृदय चाहिए। . '