लोकतंत्र में जनता अपने द्वारा अपने लिए शासकों का चयन करता हैं। लोकतंत्र में चुनाव द्वारा जनता अपने नेता को चुनता है। अमेरिका के विख्यात राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को, "जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का शासन" तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे, "लोकतंत्र में चुनाव राजनीतिक शिक्षा देने का विश्वविद्यालय है" कहा है। चुनाव का अर्थ है प्रत्याशियों का जनता के दरबार में पहुंचकर अपने तथा दल के प्रति जनता का विश्वास अर्जित कर अपनी नीतियोँ, सिद्धांतोँ, कार्योँ के प्रति जनता की स्वीकृति प्राप्त करते हुए राष्ट्र कल्याण के लिए प्रस्तुत योजनाओं पर जनता की स्वीकृति के मोहर लगवाना होता है। लोकतंत्र में जनता को स्वत्रंत रूप से अपनी बुद्धि, विवेक से अपने नेता चुनने का पूर्ण अधिकार हैं। लेकिन विडंबना है कि हमारे देश का अधिकांश मतदाता अपने मत के महत्व को नहीं समझता है। वह कभी पैसे तो कभी जाति-बिरादरी के दबाव में या फिर शराब से मदमस्त या फिर भय और आतंक की छाया में अपना मत ऐसे उम्मीदवार को दे बैठता है, जो धूर्त होते हैं।
एक अच्छे और सच्चे नेता का चुनाव करना आज बड़ी टेढ़ी खीर हैं। क्योँकि ऐसे उम्मीदवारों का सर्वथा टोटा होता है। चुनाव के समय जो नेता शहद और दूध की नदियां बहाकर बड़ी-बड़ी कसमें खाकर वोट हासिल कर लेता हैं वही जीतने के बाद सबसे बड़ा बोझ बन जाता है। जब चुनाव धन, बोगस वोटिंग, जाति -धर्म के नाम पर लड़ा जाता है तब एक सच्चा देश भक्त और त्यागी नेता चुनाव के रेगिस्तान में निरर्थकता की फसल बोते-बोते दम तोड़ देता है और धूर्त व छली नेता मैदान मार ले जाता है।
आज यदि समग्र विचार किया जाय तो अपने नेता के चुनाव की हालत अकबर इलाहाबादी के व्यंग्य की तरह नज़र आएगी -
"नयी तहज़ीब में दिक्कत, ज्यादा तो नहीं होती।
मजहब रहते हैं, कायम, फ़क़त ईमान जाता है।।" . .