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भारतदुर्दशा छठा अंक

25 जनवरी 2022

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स्थान-गंभीर वन का मध्यभाग
(भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है)
(भारतभाग्य का प्रवेश)
भारतभाग्य : (गाता हुआ-राग चैती गौरी)
जागो जागो रे भाई।
सोअत निसि बैस गँवाई। जागों जागो रे भाई ।।
निसि की कौन कहै दिन बीत्यो काल राति चलि आई।
देखि परत नहि हित अनहित कछु परे बैरि बस जाई ।।
निज उद्धार पंथ नहिं सूझत सीस धुनत पछिताई।
अबहुँ चेति, पकारि राखो किन जो कुछ बची बड़ाई ।।
फिर पछिताए कुछ नहिं ह्नै है रहि जैहौ मुँह बाई।
जागो जागो रे भाई ।।
(भारत को जगाता है और भारत जब नहीं जागता तब अनेक यत्न से फिर जगाता है, अंत में हारकर उदास होकर)
हाय! भारत को आज क्या हो गया है? क्या निःस्संदेह परमेश्वर इससे ऐसा ही रूठा है? हाय क्या अब भारत के फिर वे दिन न आवेंगे? हाय यह वही भारत है जो किसी समय सारी पृथ्वी का शिरोमणि गिना जाता था?
भारत के भुजबल जग रक्षित।
भारतविद्या लहि जग सिच्छित ।।
भारततेज जगत बिस्तारा।
भारतभय कंपत संसारा ।।
जाके तनिकहिं भौंह हिलाए।
थर थर कंपत नृप डरपाए ।।
जाके जयकी उज्ज्वल गाथा।
गावत सब महि मंगल साथा ।।
भारतकिरिन जगत उँजियारा।
भारतजीव जिअत संसारा ।।
भारतवेद कथा इतिहासा।
भारत वेदप्रथा परकासा ।।
फिनिक मिसिर सीरीय युनाना।
भे पंडित लहि भारत दाना ।।
रह्यौ रुधिर जब आरज सीसा।
ज्वलित अनल समान अवनीसा ।।
साहस बल इन सम कोउ नाहीं।
तबै रह्यौ महिमंडल माहीं ।।
कहा करी तकसीर तिहारी।
रे बिधि रुष्ट याहि की बारी ।।
सबै सुखी जग के नर नारी।
रे विधना भारत हि दुखारी ।।
हाय रोम तू अति बड़भागी।
बर्बर तोहि नास्यों जय लागी ।।
तोड़े कीरतिथंभ अनेकन।
ढाहे गढ़ बहु करि प्रण टेकन ।।
मंदिर महलनि तोरि गिराए।
सबै चिन्ह तुव धूरि मिलाए ।।
कछु न बची तुब भूमि निसानी।
सो बरु मेरे मन अति मानी ।।
भारत भाग न जात निहारे।
थाप्यो पग ता सीस उधारे ।।
तोरो दुर्गन महल ढहायो।
तिनहीं में निज गेह बनायो ।।
ते कलंक सब भारत केरे।
ठाढ़े अजहुँ लखो घनेरे ।।
काशी प्राग अयोध्या नगरी।
दीन रूप सम ठाढी़ सगरी ।।
चंडालहु जेहि निरखि घिनाई।
रही सबै भुव मुँह मसि लाई ।।
हाय पंचनद हा पानीपत।
अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत ।।
हाय चितौर निलज तू भारी।
अजहुँ खरो भारतहि मंझारी ।।
जा दिन तुब अधिकार नसायो।
सो दिन क्यों नहिं धरनि समायो ।।
रह्यो कलंक न भारत नामा।
क्यों रे तू बारानसि धामा ।।
सब तजि कै भजि कै दुखभारो।
अजहुँ बसत करि भुव मुख कारो ।।
अरे अग्रवन तीरथ राजा।
तुमहुँ बचे अबलौं तजि लाजा ।।
पापिनि सरजू नाम धराई।
अजहुँ बहत अवधतट जाई ।।
तुम में जल नहिं जमुना गंगा।
बढ़हु वेग करि तरल तरंगा ।।
धोवहु यह कलंक की रासी।
बोरहु किन झट मथुरा कासी ।।
कुस कन्नौज अंग अरु वंगहि।
बोरहु किन निज कठिन तरंगहि ।।
बोरहु भारत भूमि सबेरे।
मिटै करक जिय की तब मेरे ।।
अहो भयानक भ्राता सागर।
तुम तरंगनिधि अतिबल आगर ।।
बोरे बहु गिरी बन अस्थान।
पै बिसरे भारत हित जाना ।।
बढ़हु न बेगि धाई क्यों भाई।
देहु भारत भुव तुरत डुबाई ।।
घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
करहु सफल भीतर तुम लय ।।
धोवहु भारत अपजस पंका।
मेटहु भारतभूमि कलंका ।।
हाय! यहीं के लोग किसी काल में जगन्मान्य थे।
जेहि छिन बलभारे हे सबै तेग धारे।
तब सब जग धाई फेरते हे दुहाई ।।
जग सिर पग धारे धावते रोस भारे।
बिपुल अवनि जीती पालते राजनीती ।।
जग इन बल काँपै देखिकै चंड दापै।
सोइ यह पिय मेरे ह्नै रहे आज चेरे ।।
ये कृष्ण बरन जब मधुर तान।
करते अमृतोपम वेद गान ।।
सब मोहन सब नर नारि वृंद।
सुनि मधुर वरन सज्जित सुछंद ।।
जग के सबही जन धारि स्वाद।
सुनते इन्हीं को बीन नाद ।।
इनके गुन होतो सबहि चैन।
इनहीं कुल नारद तानसैन ।।
इनहीं के क्रोध किए प्रकास।
सब काँपत भूमंडल अकास ।।
इन्हीं के हुंकृति शब्द घोर।
गिरि काँपत हे सुनि चारु ओर ।।
जब लेत रहे कर में कृपान।
इनहीं कहँ हो जग तृन समान ।।
सुनि के रनबाजन खेत माहिं।
इनहीं कहँ हो जिय सक नाहिं ।।
याही भुव महँ होत है हीरक आम कपास।
इतही हिमगिरि गंगाजल काव्य गीत परकास ।।
जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव।
रहे भारतहि अंक में कबहि सबै भुवदेव ।।
याही भारत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास।
जिनके भारतगान सों भारतबदन प्रकास ।।
याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास।
याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास ।।
याही भारत में भए मनु भृगु आदिक होय।
तब तिनसी जग में रह्यो घृना करत नहि कोय ।।
जास काव्य सों जगत मधि अब ल ऊँचो सीस।
जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस ।।
साई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान।
ये मेरे भारत भरे सोई गुन रूप समान ।।
सोइ बंस रुधिर वही सोई मन बिस्वास।
वही वासना चित वही आसय वही विलास ।।
कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अति सूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँ की धूर ।।
सोई भारत की आज यह भई दुरदसा हाय।
कहा करे कित जायँ नहिं सूझत कछु उपाय ।।
(भारत को फिर उठाने की अनेक चेष्टा करके उपाय निष्फल होने पर रोकर)
हा! भारतवर्ष को ऐसी मोहनिद्रा ने घेरा है कि अब इसके उठने की आशा नहीं। सच है, जो जान बूझकर सोता है उसे कौन जगा सकेगा? हा दैव! तेरे विचित्रा चरित्रा हैं, जो कल राज करता था वह आज जूते में टाँका उधार लगवाता है। कल जो हाथी पर सवार फिरते थे आज नंगे पाँव बन बन की धूल उड़ाते फिरते हैं। कल जिनके घर लड़के लड़कियों के कोलाहल से कान नहीं दिया जाता था आज उसका नाम लेवा और पानी देवा कोई नहीं बचा और कल जो घर अन्न धन पूत लक्ष्मी हर तरह से भरे थे आज उन घरों में तूने दिया बोलनेवाला भी नहीं छोड़ा।
हा! जिस भारतवर्ष का सिर व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि, शाक्यसिंह, बाणभट्ट, प्रभृति कवियों के नाममात्रा से अब भी सारे संसार में ऊँचा है, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारतवर्ष के राजा चंद्रगुप्त और अशोक का शासन रूम रूस तक माना जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारत में राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चंद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि पवित्र चरित्रा के लोग हो गए हैं उसकी यह दशा! हाय, भारत भैया, उठो! देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे। मूर्खों के प्रचंड शासन के दिन गए, अब राजा ने प्रजा का स्वत्व पहिचाना। विद्या की चरचा फैल चली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधिकार मिला, देश विदेश से नई विद्या और कारीगरी आई। तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भाँग के गोले, ग्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूत प्रेत की पूजा जन्मपत्राी की विधि! वही थोड़े में संतोष, गप हाँकने में प्रीती और सत्यानाशी चालें! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा! अरे अब क्या चिता पर सम्हलेगा। भारत भाई! उठो, देखो अब दुख नहीं सहा जाता, अरे कब तक बेसुध रहोगे? उठो, देखो, तुम्हारी संतानों का नाश हो गया। छिन्न-छिन्न होकर सब नरक की यातना भोगते हैं, उस पर भी नहीं चेतते। हाय! मुझसे तो अब यह दशा नहीं देखी जाती। प्यारे जागो। (जगाकर और नाड़ी देखकर) हाय इसे तो बड़ा ही ज्वर चढ़ा है! किसी तरह होश में नहीं आता। हा भारत! तेरी क्या दशा हो गई! हे करुणासागर भगवान् इधर भी दृष्टि कर। हे भगवती राज-राजेश्वरी, इसका हाथ पकड़ो। (रोकर) अरे कोई नहीं जो इस समय अवलंब दे। हा! अब मैं जी के क्या करूँगा! जब भारत ऐसा मेरा मित्र इस दुर्दशा में पड़ा है और उसका उद्धार नहीं कर सकता, तो मेरे जीने पर धिक्कार है! जिस भारत का मेरे साथ अब तक इतना संबध था उसकी ऐसी दशा देखकर भी मैं जीता रहूँ तो बड़ा वृ$तघ्न हूँ! (रोता है) हा विधाता, तुझे यही करना था! (आतंक से) छिः छिः इतना क्लैव्य क्यों? इस समय यह अधीरजपना! बस, अब धैर्य! (कमर से कटार निकालकर) भाई भारत! मैं तुम्हारे ऋण से छूटता हूँ! मुझसे वीरों का कर्म नहीं हो सकता। इसी से कातर की भाँति प्राण देकर उऋण होता हूँ। (ऊपर हाथ उठाकर) हे सव्र्वांतर्यामी! हे परमेश्वर! जन्म-जन्म मुझे भारत सा भाई मिलै। जन्म जन्म गंगा जमुना के किनारे मेरा निवास हो।
(भारत का मुँह चूमकर और गले लगाकर)
भैया, मिल लो, अब मैं बिदा होता हूँ। भैया, हाथ क्यों नहीं उठाते? मैं ऐसा बुरा हो गया कि जन्म भर के वास्ते मैं बिदा होता हूँ तब भी ललककर मुझसे नहीं मिलते। मैं ऐसा ही अभागा हूँ तो ऐसे अभागे जीवन ही से क्या; बस यह लो।
(कटार का छाती में आघात और साथ ही जवनिका पतन) 

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रचनाएँ
भारतदुर्दशा
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भारत दुर्दशा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1875 ई में रचित एक हिन्दी नाटक है। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अन्त करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं।
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भारतदुर्दशा पांचवां अंक

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भारतदुर्दशा छठा अंक

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स्थान-गंभीर वन का मध्यभाग (भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है) (भारतभाग्य का प्रवेश) भारतभाग्य : (गाता हुआ-राग चैती गौरी) जागो जागो रे भाई। सोअत निसि बैस गँवाई। जागों जागो रे भाई ।। निसि की कौन

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