shabd-logo

चाँद और कवि

17 फरवरी 2022

260 बार देखा गया 260

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, 

आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! 

उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, 

और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। 

  

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? 

मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते; 

और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी 

चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। 

  

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का 

आज उठता और कल फिर फूट जाता है 

किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो? 

बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है। 

  

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली, 

देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू? 

स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी? 

आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? 

  

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, 

आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ, 

और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की, 

इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ। 

  

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी 

कल्पना की जीभ में भी धार होती है, 

वाण ही होते विचारों के नहीं केवल, 

स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। 

  

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे, 

"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे, 

रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को, 

स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।" 

(1946)  

23
रचनाएँ
नील कुसुम
0.0
प्रस्तुत काव्य संग्रह 'नील कुसुम' में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की सौन्दर्यान्वेसी वृत्ति काव्यमयी हो जाती है पर यह अंधेरे में ध्येय सौंदर्य का अन्वेषण नहीं, उजाले में ज्ञेय सौंदर्य का आराधन है। कवि के स्वर का ओज नये वेग से नये शिखर तक पहुँच जाता है। वह काव्यात्क प्रयोगशीलता के प्रति आस्थावान है।
1

नील कुसुम

17 फरवरी 2022
0
0
0

 ‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है,  तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ?  जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका,  नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?     प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या क

2

चाँद और कवि

17 फरवरी 2022
0
0
0

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,  आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!  उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,  और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।     जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?  मैं चुका हूँ देख

3

दर्पण

17 फरवरी 2022
0
0
0

जा रही देवता से मिलने ?  तो इतनी कृपा किये जाओ ।  अपनी फूलों की डाली में  दर्पण यह एक लिये जाओ ।     आरती, फूल से प्रसन्न  जैसे हों, पहले कर लेना;  जब हाल धरित्री का पूछें,  सम्मुख दर्पण यह धर

4

व्याल-विजय

17 फरवरी 2022
0
0
0

 झूमें झर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ।  तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।     (1)  यह बाँसुरी बजी माया के मुकुलित आकुंचन में,  यह बाँसुरी बजी अविनाशी के संदेह गहन में  अस्तित्वो

5

किसको नमन करूँ मैं भारत?

17 फरवरी 2022
0
0
0

 तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?  मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?  किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?     भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है

6

भावी पीढ़ी से

17 फरवरी 2022
0
0
0

 हम तुम में साकार नहीं तो छिपे हुए हैं।  तुम भी लेकर नाव हमारे उष्ण रुधिर में  घूम रहे इच्छाओं की दुनिया टटोलते,  ले जाने को उसे, तत्त्व जो अविनश्वर है,  जा सकता है जो कुम्हलाये विना वहाँ तक  जहा

7

चंद्राह्वान

17 फरवरी 2022
0
0
0

 जागो हे अविनाशी !  जागो किरणपुरुष ! कुमुदासन ! विधु-मंडल के वासी !  जागो है अविनाशी !     रत्न-जड़ित-पथ-चारी, जागो,  उडू-वन-वीथि-विहारी, जागो,  जागो रसिक विराग-शोक के, मधुवन के संन्यासी !  जागो

8

ये गान बहुत रोये

17 फरवरी 2022
0
0
0

तुम बसे नहीं इनमें आकर,  ये गान बहुत रोये ।     बिजली बन घन में रोज हँसा करते हो,  फूलों में बन कर गन्ध बसा करते हो,  नीलिमा नहीं सारा तन ढंक पाती है,  तारा-पथ में पग-ज्योति झलक जाती है ।  हर त

9

जीवन

17 फरवरी 2022
0
0
0

पत्थरों में भी कहीं कुछ सुगबुगी है ?  दूब यह चट्टान पर कैसे उगी है ?     ध्वंस पर जैसे मरण की दृष्टि है,  सृजन में त्यों ही लगी यह सृष्टि है ।     एक कण भी है सजल आशा जहाँ,  एक अंकुर सिर उठाता

10

आनंदातिरेक

17 फरवरी 2022
0
0
0

 आनन्द का अतिरेक यह ।     हो मृत्यु की धारा अगर तो मुक्त बहने दो मुझे;  हो जिन्दगी की छाँह तो निस्पन्द रहने दो मुझे ।     कुछ और पाना व्यर्थ है,  अन्यत्र जाना व्यर्थ है ।  माँगा बहुत तुम से, नह

11

भूदान

17 फरवरी 2022
0
0
0

कौन टोकता है शंका से ? चुप रह, चुप, अपलापी !  क्रिया-हीन चिन्तन के अनुचर, केवल ज्ञान-प्रलापी !  नहीं देखता, ज्योति जगत् में नूतन उभर रही है ?  गाँधी की चोटी से गंगा आगे उतर रही है ।  अंधकार फट गया

12

आशा की वंशी

17 फरवरी 2022
0
0
0

लिख रहे गीत इस अंधकार में भी तुम  रवि से काले बरछे जब बरस रहे हैं,  सरिताएँ जम कर बर्फ हुई जाती हैं,  जब बहुत लोग पानी को तरस रहे हैं?     इन गीतों से यह तिमिर-जाल टूटेगा?  यह जमी हुई सरिता फिर

13

पावस-गीत

17 फरवरी 2022
0
0
0

 अम्बर के गृह गान रे, घन-पाहुन आये।     इन्द्रधनुष मेचक-रुचि-हारी,  पीत वर्ण दामिनि-द्युति न्यारी,  प्रिय की छवि पहचान रे, नीलम घन छाये।     वृष्टि-विकल घन का गुरु गर्जन,  बूँद-बूँद में स्वप्न

14

नींव का हाहाकार

17 फरवरी 2022
0
0
0

 कांपती है वज्र की दीवार।  नींव में से आ रहा है क्षीण हाहाकार।  जानते हो, कौन नीचे दब गया है?  दर्द की आवाज पहले भी सुनी थी?  या कि यह दुष्काण्ड बिलकुल ही नया है?  वस्त्र जब नूतन बदलते हो किसी दि

15

लोहे के पेड़ हरे होंगे

17 फरवरी 2022
0
0
0

 लोहे के पेड़ हरे होंगे,  तू गान प्रेम का गाता चल,  नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,  आँसू के कण बरसाता चल।     (1)  सिसकियों और चीत्कारों से,  जितना भी हो आकाश भरा,  कंकालों क हो ढेर,  खप्परों से चा

16

संस्कार

17 फरवरी 2022
0
0
0

कल कहा एक साथी ने, तुम बर्बाद हुए,  ऐसे भी अपना भरम गँवाया जाता है?  जिस दर्पण में गोपन-मन की छाया पड़ती,  वह भी सब के सामने दिखाया जाता है?     क्यों दुनिया तुमको पढ़े फकत उस शीशे में,  जिसका प

17

जनतन्त्र का जन्म

17 फरवरी 2022
0
0
0

 (२६ जनवरी, १९५०)  सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;  दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।     जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरत

18

नयी आवाज

17 फरवरी 2022
0
0
0

 कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,  नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है?     [1]  बताएँ भेद क्या तारे? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,  कहे क्या चाँद? उसके पास कोई बात भी हो।  निशानी तो घटा पर है

19

स्वर्ग के दीपक

17 फरवरी 2022
0
0
0

 [उनके लिए जो हमारी कतार में आने से इनकार करते हैं]     कहता हूँ, मौसिम फिरा, सितारो ! होश करो,  कतरा कर टेढी चाल भला अब क्या चलना ?  माना, दीपक हो बड़े दिव्य, ऊंचे कुल के,  लेकिन, मस्ती में अकड़-अ

20

शबनम की जंजीर

17 फरवरी 2022
0
0
0

रचना तो पूरी हुई. जान भी है इसमें?  पूछूं जो कोई बात, मूर्ति बतलायेगी ?  लग जाय आग यदि किसी रोज देवालय में,  चौंकेगी या यह खड़ी-खड़ी जल जायेगी ?     ढाँचे में तो सब ठीक-ठीक उतरा, लेकिन,  बेजान बुत

21

तुम क्यों लिखते हो

17 फरवरी 2022
0
0
0

 तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अंतरतम को  औरों के अंतरतम के साथ मिलाने को?  अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन  जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?     यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से  तब तो मेर

22

इच्छा-हरण

17 फरवरी 2022
0
0
0

धरती ने भेजा था सूरज-चाँद स्वर्ग से लाने,  भला दीप लेकर लौटूं किसको क्या मुख दिखलाने?  भर न सका अंजलि, तू पूरी कर न सका यह आशा,  उलटे, छीन रहा है मुझसे मेरी चिर-अभिलाषा ।  रहने दे निज कृपा, हुआ यद

23

कवि की मृत्यु

17 फरवरी 2022
0
0
0

जब गीतकार मर गया, चाँद रोने आया,  चांदनी मचलने लगी कफ़न बन जाने को  मलयानिल ने शव को कन्धों पर उठा लिया,  वन ने भेजे चन्दन श्री-खंड जलाने को !     सूरज बोला, यह बड़ी रोशनीवाला था,  मैं भी न जिसे

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए