आनन्द का अतिरेक यह ।
हो मृत्यु की धारा अगर तो मुक्त बहने दो मुझे;
हो जिन्दगी की छाँह तो निस्पन्द रहने दो मुझे ।
कुछ और पाना व्यर्थ है,
अन्यत्र जाना व्यर्थ है ।
माँगा बहुत तुम से, नहीं कुछ और माँगूंगा;
अब इस महामधु-पूर्ण निद्रा से न जागूंगा ।
नींद है वह जागरण जब फूल खिलते हों;
चेतना के सिन्धु में निश्चेत प्राणों को;
ऊर्मियों में फूटते-से गान मिलते हों।
मीठा बहुत उल्लास यह, मादक बहुत अविवेक यह
निस्सीम नभ, सागर अगम आनन्द का अतिरेक यह ।
(१९५४ ई०)