पत्थरों में भी कहीं कुछ सुगबुगी है ?
दूब यह चट्टान पर कैसे उगी है ?
ध्वंस पर जैसे मरण की दृष्टि है,
सृजन में त्यों ही लगी यह सृष्टि है ।
एक कण भी है सजल आशा जहाँ,
एक अंकुर सिर उठाता है वहाँ ।
मृत्यु का तन आग है, अंगार है;
जिन्दगी हरियालियों की धार है ।
क्षार में दो बूंद आँसू डाल कर,
और उसमें बीज कोई पाल कर,
चूम कर मृत को जिलाती जिन्दगी ।
फूल मरघट में खिलाती जिन्दगी ।
निर्झरी बन फूटती पाताल से,
कोंपलें बन नग्न, रूखी डाल से ।
खोज लेती है सुधा पाषाण में,
जिन्दगी रुकती नहीं चट्टान में ।
बाल भर अवकाश होना चाहिए,
कुछ खुला आकाश होना चाहिए,
बीज की फिर शक्ति रुकती है कहाँ ?
भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहाँ ?
(१९५४ ई०)