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व्याल-विजय

17 फरवरी 2022

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 झूमें झर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ। 

तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(1) 

यह बाँसुरी बजी माया के मुकुलित आकुंचन में, 

यह बाँसुरी बजी अविनाशी के संदेह गहन में 

अस्तित्वों के अनस्तित्व में,महाशांति के तल में, 

यह बाँसुरी बजी शून्यासन की समाधि निश्चल में। 

कम्पहीन तेरे समुद्र में जीवन-लहर उठाऊँ 

तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(2) 

अक्षयवट पर बजी बाँसुरी,गगन मगन लहराया 

दल पर विधि को लिए जलधि में नाभि-कमल उग आया 

जन्मी नव चेतना, सिहरने लगे तत्व चल-दल से, 

स्वर का ले अवलम्ब भूमि निकली प्लावन के जल से। 

अपने आर्द्र वसन की वसुधा को फिर याद दिलाऊँ। 

तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(3) 

फूली सृष्टि नाद-बंधन पर, अब तक फूल रही है, 

वंशी के स्वर के धागे में धरती झूल रही है। 

आदि-छोर पर जो स्वर फूँका,दौड़ा अंत तलक है, 

तार-तार में गूँज गीत की,कण-कण-बीच झलक है। 

आलापों पर उठा जगत को भर-भर पेंग झूलाऊँ। 

तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(4) 

जगमग ओस-बिंदु गुंथ जाते सांसो के तारों में, 

गीत बदल जाते अनजाने मोती के हारों में। 

जब-जब उठता नाद मेघ,मंडलाकार घिरते हैं, 

आस-पास वंशी के गीले इंद्रधनुष तिरते है। 

बाँधू मेघ कहाँ सुरधनु पर? सुरधनु कहाँ सजाऊँ? 

तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(5) 

इस वंशी के मधुर तन पर माया डोल चुकी है 

पटावरण कर दूर भेद अंतर का खोल चुकी है। 

झूम चुकी है प्रकृति चांदनी में मादक गानों पर, 

नचा चुका है महानर्तकी को इसकी तानों पर। 

विषवर्षी पर अमृतवर्षिणी का जादू आजमाऊँ, 

तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(6) 

उड़े नाद के जो कण ऊपर वे बन गए सितारे, 

नीचे जो रह गए, कहीं है फूल, कहीं अंगारे। 

भीगे अधर कभी वंशी के शीतल गंगा जल से, 

कभी प्राण तक झुलस उठे हैं इसके हालाहल से। 

शीतलता पीकर प्रदाह से कैसे ह्रदय चुराऊँ? 

तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(7) 

यह बाँसुरी बजी, मधु के सोते फूटे मधुबन में, 

यह बाँसुरी बजी, हरियाली दौड गई कानन में। 

यह बाँसुरी बजी, प्रत्यागत हुए विहंग गगन से, 

यह बाँसुरी बजी, सरका विधु चरने लगा गगन से। 

अमृत सरोवर में धो-धो तेरा भी जहर बहाऊँ। 

तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(8) 

यह बाँसुरी बजी, पनघट पर कालिंदी के तट में, 

यह बाँसुरी बजी, मुरदों के आसन पर मरघट में। 

बजी निशा के बीच आलुलायित केशों के तम में, 

बजी सूर्य के साथ यही बाँसुरी रक्त-कर्दम में। 

कालिय दह में मिले हुए विष को पीयूष बनाऊँ। 

तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

(9) 

फूँक-फूँक विष लपट, उगल जितना हों जहर ह्रदय में, 

वंशी यह निर्गरल बजेगी सदा शांति की लय में। 

पहचाने किस तरह भला तू निज विष का मतवाला? 

मैं हूँ साँपों की पीठों पर कुसुम लादने वाला। 

विष दह से चल निकल फूल से तेरा अंग सजाऊँ 

तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(10) 

ओ शंका के व्याल! देख मत मेरे श्याम वदन को, 

चक्षुःश्रवा! श्रवण कर वंशी के भीतर के स्वर को। 

जिसने दिया तुझको विष उसने मुझको गान दिया है, 

ईर्ष्या तुझे, उसी ने मुझको भी अभिमान दिया है। 

इस आशीष के लिए भाग्य पर क्यों न अधिक इतराऊँ? 

तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

  

(11) 

विषधारी! मत डोल, कि मेरा आसन बहुत कड़ा है, 

कृष्ण आज लघुता में भी साँपों से बहुत बड़ा है। 

आया हूँ बाँसुरी-बीच उद्धार लिए जन-गण का, 

फन पर तेरे खड़ा हुआ हूँ भार लिए त्रिभुवन का। 

बढ़ा, बढ़ा नासिका रंध्र में मुक्ति-सूत्र पहनाऊँ 

तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ। 

(1949)  

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रचनाएँ
नील कुसुम
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प्रस्तुत काव्य संग्रह 'नील कुसुम' में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की सौन्दर्यान्वेसी वृत्ति काव्यमयी हो जाती है पर यह अंधेरे में ध्येय सौंदर्य का अन्वेषण नहीं, उजाले में ज्ञेय सौंदर्य का आराधन है। कवि के स्वर का ओज नये वेग से नये शिखर तक पहुँच जाता है। वह काव्यात्क प्रयोगशीलता के प्रति आस्थावान है।
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कौन टोकता है शंका से ? चुप रह, चुप, अपलापी !  क्रिया-हीन चिन्तन के अनुचर, केवल ज्ञान-प्रलापी !  नहीं देखता, ज्योति जगत् में नूतन उभर रही है ?  गाँधी की चोटी से गंगा आगे उतर रही है ।  अंधकार फट गया

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जनतन्त्र का जन्म

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नयी आवाज

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शबनम की जंजीर

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 तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अंतरतम को  औरों के अंतरतम के साथ मिलाने को?  अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन  जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?     यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से  तब तो मेर

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कवि की मृत्यु

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जब गीतकार मर गया, चाँद रोने आया,  चांदनी मचलने लगी कफ़न बन जाने को  मलयानिल ने शव को कन्धों पर उठा लिया,  वन ने भेजे चन्दन श्री-खंड जलाने को !     सूरज बोला, यह बड़ी रोशनीवाला था,  मैं भी न जिसे

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