चिर आनंद हो उपवन का।
सुधा सरस सी धारा बहती हो।
गुंजित होता हो मधुकर के कलरव से।
सुन्दर सा उपवन, चंदन से लेपित हो।
तनिक प्रहर बीते, मैं शांति मन की पा लूं।
हे कोकिल तुम बोलो, कहां पड़ाव मैं डालूं?
जगमग करते निशा रात्रि में तारे।
फलक पर चंद्रमा, शीतल हो प्यारे।
हृदय की तृष्णा, ही कठिन वेदना मारे।
नहीं दुसह व्यंजना विकल हो मुझे पुकारे।
तनिक प्रहर बीते, बैठ वहां सुस्ता लूं।
हे कोकिल तुम बोलो, कहां पड़ाव मैं डालूं?
अंगार हृदय में नहीं सुलगे, ऐसा निर्जन वन हो।
शांति की आभा लिये, मधुमय सा उपवन हो।
होता जहां मानवता और मानव का मन हो।
मैं झोलियां भर लूं, जीवन का जहां पे धन हो।
तनिक प्रहर बीते, गीत मैं जीवन तेरे गा लूं।
हे कोकिल तुम बोलो, कहां पड़ाव मैं डालूं?
आशा-प्रत्यासा से अलग कुंज हो निर्मल।
जहां समीर नहीं वेगवान हो, मन हो जाए निश्चल।
नहीं जहां पर खेल अलग हो, हो नहीं कोई हलचल।
चिर एकांत उस उपवन ने पहना हो जैसे वल्कल।
तनिक प्रहर बीते, मैं अपने स्वभाव जगा लूं।
हे कोकिल तुम बोलो, कहां पड़ाव मैं डालूं?
अभिलाषा मन की, कोकिल तुमको बतलाऊँ।
तुम बतलाओ वह उपवन, जहां आनंद को पाऊँ।
जीवन जहां लहरे लेती हो, मैं भी गोता खाऊँ।
होने को है संध्याकाल भ्रम का अब, दो पल को सुस्ताऊँ।
तनिक प्रहर बीते, मैं जीवन के संग धुनी रमा लूं।
हे कोकिल तुम बोलो, कहां पड़ाव मैं डालूं?