यह जीवन का मरुभूमि है।
पथ पर चलने बाले, चलता-चल।
निर्णय करने को समय खड़ा।
तुम तो निज स्वभाव में ढलता-चल।
होने को जो हो, जीत-हार को रहने दे।
ओ पथिक, तुम दीपक सा जलता-चल।।
माना कि लंबा बियाबान डगर है।
पर है तो, यह कल का कोई शहर है।
धूप तीखी एहसास लिए झुलसाए ।
पर इतना तो है, जाना-पहचाना नगर है।
तुम आगे को बढता जा, अधिक भार को रहने दे।
अरे पथिक, बन मानव, दीपक सा जलता-चल।।
रातें भी अंधियारी आएगी, तुम हैरान नहीं हो।
उन कर्तव्यों के नियमों से परेशान नहीं हो।
आहत भी मत होना, पथ पर फैले कांटों से।
मंजिल तक जाने की दुविधा से अंजान नहीं हो।
तुम मानव हो, औरो को जो कहना है, कहने दे।
तुम तो धर्म निभाओ, दीपक सा जलता-चल।।
उपमानों की नहीं रखना व्यर्थ चाहना।
पथ पर तुम्हें पथिक, व्यर्थ वेदना होगा।
गुंजित स्वर कलरव जीवन के सुन भी लो।
चलता चल पथ पर, बनकर निष्काम निरोगी।
तुम तो चलता चल, धारा उलटी बहती है, बहने दे।
मानव गीत जीवंत गाओ, दीपक सा जलता-चल।।
इस जीवन के मरुभूमि पर कांटों का जाल बिछा है।
तुम क्या देख रहे हो? अगणित कंकाल बिछा है।
तुम प्यासे हो? यहां सुखा हुआ ताल बिछा है।
तुम्हें उत्तर नहीं मिलेगा, इतना सवाल बिछा है।
तुम बनो पथिक ऐसे, मन को निर्ममता सहने दे।
पथिक हो पथ के धैर्यशील, दीपक सा जलता-चल।।