गूंज, जीवन के अभिलाषा का।
शब्द, पथ पर बढने की आशा का।
मंथन करता हूं, सत्य की परिभाषा का।
फिर क्यों गठरी बांधे रहूं, व्यर्थ निराशा का।
मैं मन की माला में प्रेम के धागे डालूं।
तुम ठहरो तो, तुम्हें अपनी बात बता लूं।।
माना कि दुर्गम होगा, पथ पर कंकर है।
पर प्यास सुधा से मिटने को झरना निर्झर है।
कही क्षुधा भड़के, फूला-फला ही तरुवर है।
मधु रस की जो हो चाह, देने को मधुकर है।
पथ पर हूं, आगे बढने से पहले छवि बना लूं।
तुम ठहरो तो, तुम्हें अपनी बात बता लूं।।
माना कि श्रृंगार पिघलेगा, ताप अधिक होने से।
पर क्यों व्याकुल होऊँ, क्या मिलता है रोने से।
सार्थकता फिर क्या? पथ पर भार अधिक ढोने से।
किंचित आहत क्यों होना? अहंकार खोने से।
जीवन सरिता की शीतलता, मैं अपने हृदय बसा लूं।
तुम ठहरो तो, तुम्हें अपनी बात बता लूं।।
सुविधा के मानक बिंदु पर, दुविधा क्यों मैं पालूं।
क्यों भ्रम के जय-जय में खुद ही आग लगा लूं।
तुम तो ठहरो पल भर, मैं तैलिय चित्र बना लूं।
जीवन के उन्नत शिखरों पर, पर्णकुटि छवा लूं।
संभव जो हो, पथ पर अपना कर्तव्य निभा लूं।
तुम ठहरो तो, तुम्हें अपनी बात बता लूं।।
गूंज, जीवन के अभिलाषा का, रखूं स्मृति पटल पर।
मन मानव हूं, क्यों छोड़ूं करने को कल पर?
क्यों अहंकार का अंधकार, पालूं दृष्टि पटल पर?
क्यों विस्मित फिर होऊँ, होते हुए व्यर्थ के छल पर?
मन की क्यारी में, मैं मानवता के पुष्प सजा लूं।
तुम ठहरो तो, तुम्हें अपनी बात बता लूं।।