द्रौपदी स्वयंवर : एक और दृष्टिकोण
द्रौपदी स्वयंवर का समय, पांचाल की राजधानी काम्पिल्य में सभा भरी हुई थी, विशाल सभागार की एक ओर चबूतरे पर सिंहासन पर द्रुपद विराजमान थे, उनकी दाहिनी ओर क्रम से युवराज धृष्टद्युम्न और उनके बाद अन्य राजकुमार बैठे थे, सत्यजित, उत्तमजस, कुमार, युद्धमन्यु, वृंक, पांचाल्य, सुरथ,शत्रुंजय और जन्मेजय। बाईं ओर महारानी प्रस्हति और उनके बगल में श्यामल वर्णा किंतु अनिद्य सुंदरी द्रौपदी विराजमान थीं।
शिखंडिनी अनुपस्थित थीं, वो कुछ मास पहले ही अपने जीवन के निर्णायक कार्य के लिये तपस्या करने जा चुकी थीं।
सभागार में स्वयंवर के नियमों के अनुरूप बैठक व्यवस्था की गई थी । दीवार से लगे आसन ऋषियो, मुनियों तथा स्वयंवर में भाग न लेने वालो आमंत्रितों के लिये थे। वहीं एक आसन पर कृष्ण बैठे हुए थे, जिनके आसपास के कई आसन रिक्त थे।उसके बाद भाग लेने वालों के लिये अधिकार के अनुसार रथी, महारथी ,अतिरथी और अन्य योद्धाओं के बैठने की व्यवस्था थी । मध्यभाग में एक वस्त्राच्छादित लगभग 25हाथ लंबा और उतना ही चौडा मंडप बना हुआ था। मुख्यद्वार की ओर साधारण जनता के स्वयंवर देखने की व्यवस्था की गई थी ।
द्रुपद की दृष्टि राजगुरू पर लगी हुई थी, जिनका स्वयं का ध्यान अपने सामने रखे एक जलपात्र में पानी में डूबती तांबे की घटिका पर था, मुहूर्त का निश्चय करने के लिये। जैसे ही ताम्रपात्र डूबा, राजगुरू ने सिर उठाकर द्रुपद की ओर देखा और संकेत किया, स्वयंवर का मुहूर्त आ पहुंचा था।
द्रुपद सिंहासन से उठे और उन्होंने हाथ जोड़कर आंखें बंद करके सबसे पहले अपने इष्ट का स्मरण किया, सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम किया ,कृष्ण की ओर देखकर हाथ जोड़े और कहना आरंभ किया, "आज यहां मेरी पुत्री पांचाल की राजकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर है। आप सभी उसी के लिए यहां आमंत्रित किए गए हैं। पांचाली के हाथों से वरमाला स्वीकार करने के लिए एक धनुर्विद्या की परीक्षा रखी गई है जो धनुर्धर इस परीक्षा को उत्तीर्ण करेगा वहीं द्रौपदी का पति होगा ।"
उन्होंने अपने मंत्री की ओर देखकर संकेत किया जिनके आदेश पर कुछ सेवक आगे बढ़े और उन्होंने मध्य मंडप पर स्थित वस्त्रों का आच्छादन हटा दिया। उस मंडप में मध्य में दर्पण की तरह स्वच्छ जल से भरा हुआ एक पात्र रखा हुआ था चारों खंभों से जोड़कर मध्य में ऊपर की ओर एक चक्र बना हुआ था उस चक्र में काष्ठ निर्मित एक स्वर्ण मंडित मछली बनी हुई थी। चक्र से ऊपर की ओर वायु की गति से घूमने वाला यंत्र (Anemometer) लगा हुआ था जिसकी चारों पंखुड़ियां मंडप से ऊपर की ओर निकली हुई थीं। वायु की गति से जब वह पंखुड़ियां घूमती तो साथ में चक्र और उसके साथ मछली भी।
एक किनारे पर मेज पर एक विशाल धनुष रखा हुआ था और उन्हीं के साथ कुछ बाण भी थे। सभी की दृष्टि उस मंडप से होते हुए पुनः द्रुपद के चेहरे तक पर जाकर टिक गई। द्रुपद ने आगे कहा "इस पात्र में रखे जल में ऊपर घूमती हुई मछली की प्रतिच्छाया देखकर जो धनुर्धर उसके नेत्र का भेदन करेगा, उसे ही द्रौपदी पति रूप में वरण करेगी।"
सभागार में निस्तब्धता छा गई ! इतनी कठिन परीक्षा! महाराज द्रुपद में एक ही दृष्टि में देख लिया, केवल एक ही चेहरा ऐसा था जिस पर स्मित हास्य कौंध रहा था, वह चेहरा था वासुदेव कृष्ण का। अब आरंभ हुआ स्वयंवर का एक एक कर के राजा, रथी, महारथी आते कुछ धनुष ही नहीं उठा पाते, जो उठा लेते उनसे प्रत्यंचा नहीं चढ़ती, जो प्रत्यंचा चढ़ा लेते वे बाण का संधान नहीं कर पाते ।
आखेट में अथवा शत्रु पर सामने बाण चलाना भिन्न बात होती है और नीचे गर्दन कर एक हाथ से धनुष की दिशा ऊपर आकाश की ओर भेदन करना भिन्न। उसपर लक्ष्य इतना सूक्ष्म और घूमता हुआ, असंभव।
कृष्ण जहां बैठे थे उसके पास में उनका स्वामी भक्त सारथी दारूक उपस्थित था कृष्ण ने उसे संकेत किया और वह सभागार से बाहर निकल कुछ ही देर में दारू प्लॉटर तो उसके पीछे 5 सन्यासी लंबे केश बढ़ी दाढ़ी और वल्कल वस्त्र। उन्होंने केवल नेत्रों के संकेत से कृष्ण को प्रणाम किया और दारूक द्वारा बताए गए स्थान पर जाकर बैठ गए।
स्वयंवर चल रहा था । योद्धा आते प्रयत्न करते और असफल हो कर शीश नीचे किए चल देते। यह सब चलते हुए लगभग 2 घटिका समाप्त होने को आ गई।
राजपरिवार और पांचाल के मंत्रियों,कर्मचारियों और दर्शकों के मुख पर क्रोध, दुख और पीड़ा के मिले जुले भाव सरलता से देखे जा सकते थे। सबसे क्रोधित द्रुपद थे । अंततः द्रुपद में हाथ उठाकर परीक्षा को रोकने का संकेत किया और खड़े हो गए।
" हमने अपने गुरु के मुख से त्रेता में सीता स्वयंवर की कथा सुनी है"द्रुपद ने कहा," माता सीता भूमि से उत्पन्न हुई थी मेरी पुत्री यज्ञ से उत्पन्न हुई उनके लिए तो राम आ ही गए थे" गहरी श्वास ली द्रुपद ने, "किंतु लग रहा है कि यज्ञ सेना के लिए उपयुक्त वर इस भूमि पर अब नहीं बचा, ऐसा लगता है पांचाली कुमारी ही रहेगी"
उन्होंने पूरे सभागार पर दृष्टि घुमाते हुए कृष्ण की ओर भी देखा जिनके मुख पर सदा की तरह से स्मित लास्य कर रहा था, समझ नहीं आया उसका अर्थ किंतु कुछ कह नहीं पाए। द्रुपद के यह कटु वाक्य सुनकर दुर्योधन खड़े हो गए, चढ़ी हुई भौहें, चेहरे पर क्रोध और फडकती हुई भुजाएं।दुर्योधन ने स्वयंवर में स्वयं भाग नहीं लिया था, गदा युद्ध होता तो लेते भी किंतु धनुर्विद्या...
"क्षमा करें महाराज द्रुपद किंतु भूमि धनुर्धरों से शून्य नहीं हुई है अब तक! अधिक नहीं कहना चाहता किंतु मेरे मित्र अंगराज कर्ण इसी समय इस परीक्षा को उत्तीर्ण कर आप की पुत्री का पानी ग्रहण करेंगे" "उठो मित्र" दुर्योधन ने अपने समीप के आसन पर बैठे अंगराज कर्ण के कंधे पर हाथ रखा। द्रुपद के मुख पर थोड़ी शांति छलकी और वह अपने सिंहासन पर पुनः विराजमान हो गए।
कर्ण अपने स्थान से उठे और द्रुपद को प्रणाम कर वेद मंडप की ओर बढ़े तभी वहां एक मधुर किंतु आत्मविश्वास से भरी वाणी गूज गई,
"रुकिए, अंगराज स्वयंवर में भाग नहीं ले सकते"
पूरे सभागार में उपस्थित सभी की दृष्टि ध्वनि की ओर उठ गई। प्रत्येक चेहरे पर आश्चर्य का भाव किंतु दुर्योधन और उसके आसपास बैठे कई चेहरे को दें क्रोध से रक्तिम हो उठे। दुर्योधन ने क्रोधित स्वर में प्रश्न किया "कुमारी यज्ञ सेना यह परीक्षा है और जो विजयी होगा वही पुरस्कृत होगा, आप कैसे अंगराज को मना कर सकती हैं?"
"युवराज दुर्योधन यह परीक्षा नहीं स्वयंवर है, मेरी वरमाला कोई पुरस्कार नहीं है। स्वयंवर का अर्थ होता है कि कन्या को अधिकार हो कि वह किसे इस परीक्षा में सहभागी होने दे या नहीं। स्त्री कोई निर्जीव वस्तु नहीं होती और मैं नहीं चाहती कि मेरी वरमाला किसी सूत पुत्र के गले में पड़े।"
पूरे सभागार में जैसे सभी को लकवा मार गया हो कर्ण जहां तक पहुंचे थे, वहां ठिठक गए, एक दृष्टि द्रौपदी पर डाली और शीष नीचे किए बिना दोबारा किसी की ओर दृष्टिपात किए बाहर जाने के उद्देश्य से मुख्य द्वार की ओर बढ़ गए। " रुको मित्,र जहां हमारे मित्र का सम्मान नहीं वहां हमारा भी ठहरना उचित नहीं"। दुर्योधन भी उठे और एक तीक्ष्ण दृष्टि द्रुपद और पांचाली पर डालकर अपने साथियों के साथ बाहर की ओर बढ़ गए।
ये और इसके आगे की भी कथा सभी को पता है.....
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कुछ समय काल पश्चात्, इन्द्रप्रस्थ के अपने कक्ष के एकांत में बलिष्ठ शरीर किंतु कोमल हृदय के स्वामी भीमसेन ने पूछ ही लिया,
"विवाह के दिन से ही एक प्रश्न मुझे परेशान करता आया है पांचाली, यदि कष्ट न हो तो पूछ लूं?
कृष्ण से ही मिलती जुलती मुस्कान आ गई द्रौपदी के चेहरे पर, भीम को उस समय ये समझ में आया कि द्रौपदी को कृष्णा क्यों कहा जाता है।
"जानती हूं देव, मैने अंगराज कर्ण को भरी सभा में अपमानित क्यों किया, सही है न! "
" सत्य यही है कि इस परीक्षा में अंगराग उत्तीर्ण हो जाते और मेरा विवाह उनसे हो जाता, एक अर्धपुरुष से"
"अर्धपुरुष "
"एक स्त्री के दृष्टिकोण से देखें देव, अच्छा मेरे कुछ प्रश्नों के उत्तर दें,
पुरुषार्थ और वर्ण कितने हैं ?"
"चार, धर्म अर्थ काम मोक्ष,
विप्र, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र"
"कर्ण ने धनुर्विद्या सीखकर किस वर्ण का आश्रय लिया? "
"क्षत्रिय "
"क्षत्रिय के स्वधर्म के प्रति कर्तव्य और गुण क्या होने चाहिए? "
"रक्षा, राज्यवृद्धि, अनुशासन, अयाचन, बाहुबल, वीरता, साहस, दूरदृष्टि, आत्मसम्मान"
"कर्ण अंगराज कैसे बने? "
"दुर्योधन ने बनाया "
"राजा बनने के पश्चात कितने राज्य जोडे उन्होने अंग में? "
"...................."
"राजकुमारों का अध्ययन पूरे होने की प्रतियोगिता में, जहां केवल राजपरिवार के ही पुत्र अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं, कर्ण का जाने का हठ उचित नहीं था। उन्होने धनुर्विद्या सीखी थी, हस्तिनापुर या किसी भी अन्य राज्य की सेना में सम्मिलित हो सकते थे, स्वयं कृष्ण उन्हें श्रेष्ठ धनुर्धर मानते हैं, योग्यता थी किंतु साहस नहीं किया, किसी सेना में सम्मिलित होकर युद्धभूमि में स्वयं को प्रमाणित करने की वीरता नहीं थी उनमें।"
"किंतु द्रौपदी"
"रुकिये देव, प्रश्न पूछा है तो पूरा उत्तर भी सुन लें।
ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय बाहुबल से, वैश्य धन से तथा शूद्र मेहनत से होते हैं,इन के बिना वर्ण महत्वहीन हैं ।
अर्जुन से स्वयं को बराबर प्रमाणित करने की दौड में कर्ण ने दुर्योधन की विषाक्त मित्रता स्वीकार कर ली, ये उनकी दूरदृष्टि है, अंगराज ने दान ले लिया राज्य का,क्षत्रिय ऐसा कुछ भी उपयोग नहीं करता जो बाहुबल से न कमाया हो, याचक नहीं होता।
वे अंग के राजा हैं, रहते हस्तिनापुर में हैं, सुंदर अनुशासन!"
व्यंग्य भरी हंसी तैर गई पांचाली के चेहरे पर।
"राज्यवृद्धि की बात न ही करें, सुना है उनके द्वार से कोई खाली नहीं जाता, बहुत दान करते हैं, किस धन का? जो स्वयं ने दान लिया है?"
"ये हो गए दो पुरुषार्थ, चार से बनता है पुरुष, इसीलिये मैने कर्ण को अर्धपुरुष कहा। मैं नहीं विश्व की कोई स्त्री अर्धपुरुष से विवाह नहीं करना चाहेगी।"
नारी बेहद दयालू होती है देव, किंतु संतान के लिये, अपने पति से उसे प्रेम, अधिकार, सुख, रक्षा, सम्मान और धन सभी इच्छित होता है ।"
"किंतु सूतपुत्र!" भीम ने कहा
"मुझे कृष्ण ने बताया था, कर्ण के मन मेंअपने जन्म से क्षत्रिय न होने का बहुत दुख और स्वजाति से लज्जा का भाव है, उस दिन काम्पिल्य में विभिन्न देशों के राजा महाराजा उपस्थित थे और निकट ही उनकी सेनाएं भी, यदि मैं ये सब वहीं कह देती तो चोट कर्ण से अधिक दुर्योधन के अहंकार को लगती जिसका अर्थ होता भयंकर युद्ध, जिसमें पांचाल और अन्य स्थानों से आए सामान्य नागरिक मारे जाते या मुझे कर्ण से विवाह करना होता, दोनो स्वीकार्य नहीं थे अतः तीसरा मार्ग था मर्म पर चोट तो वही किया।
यही राजनीति है देव, यदि सौ की सुरक्षा के लिये एक को दांव पर लगाना पडे तो संकोच नहीं करना चाहिये। और यही धर्म भी है।"
भीमसेन निरुत्तर हो चुके थे।
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