देश के न्यायिक इतिहास में भोड़सी स्थित रेयान इंटरनेशनल स्कूल के 7 साल के छात्र प्रद्युम्न की हत्या शायद ऐसा पहला आपराधिक प्रकरण हैं जिसने एक अलग ही इतिहास रचा हैं। हरियाणा पुलिस ने आनन फानन में प्रारंभ में स्कूल बस के कन्डक्टर अशोक को मुख्य आरोपी बनाया था। लेकिन मीडिया जन आक्रोश व परिवार के दबाव के चलते इस हत्या कांड की जांच को सीबीआई को सौपने के बाद सीबीआई ने उसे मुख्य अभियुक्त न मानकर मृतक प्रद्युम्न के स्कूल के कक्षा 11 वंीं के विद्यार्थी नाबालिक को मुख्य आरोपी मानकर उसकी गिरफ्तारी की व आरोपी को आगे जांच हेतु पुलिस व न्यायिक रिमंाड पर ले लिया। प्रथम दृष्टया हरियाणा पुलिस ने प्रद्युम्न की हत्या से उत्पन्न तीव्र जन प्रतिक्रिया के चलते जल्दबाजी में बस कन्डक्टर अशोक को उसके अपराध स्वीकृति बयान के आधार पर गिरफ्तार कर मुख्य आरोपी बनाया, तब भी मृतक प्रघुम्न के परिवारवालों ने हरियाणा पुलिस की इस कार्यवाही पर प्रश्न वाचक चिन्ह लगाया था। उनका आरंभ से ही यह कहना था कि आरोपी और कोई दूसरा भी हैं। हरियाणा पुलिस द्वारा जिस प्रकार आरोपी कन्डक्टर अशोक से अपराध स्वीकृत कराया गया, वह हमारी पुलिस प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान छोड़ता हैं। चर्चित मामलो में पुलिस किस तरह अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के खातिर दबाव में दबाव पूर्वक गलत दबावपूर्वक तरीको द्वारा अपराध की झूठी स्वीकृति अभियोगी से करवाती होगी, यह स्थिति इस हत्या कांड की घटनाओं से स्वयं में उजागर होती हैं। जन आक्रोश के दबाव के कारण प्रकरण सीबीआई को सौपने के फलस्वरूप अवश्य जबकि एक निरापराध अभियोगी अभियोजन की लम्बी यंत्रणा से बच सकेगा (यद्यपि सीबीआई द्वारा अभी तक उसे पूर्ण क्लीन चिट नही दी गई हैं जबकि उक्त विद्यार्थी द्वारा भी अपराध स्वीकारित बयान दिया हैं।) लेकिन देश में इस तरह के न जाने कितने प्रकरण और होते हैं जहाँ पुलिस गलत तरीको से अभियोगी से अपराध स्वीकार करवा कर अपनी जय जय कार करवाती हैं तथा निर्दोष लोग न्यायिक व दांडिक प्रक्रिया की बलि चढ़ जाते हैं। पुलिस की इन हथकंडो वाली प्रक्रिया पर कुछ न कुछ अंकुश व लगाम लगाने की महती आवश्यकता आज के समय की मांग हैं। एक और महत्वपूर्ण प्रश्न इस हत्या कांड से यह उत्पन्न होता हैं कि इस घटना के छद्म पहलू पर किसी भी बुद्धिजीवी वर्ग मीड़िया या न्यायालय या वकीलों का ध्यान नहीं गया हैं। प्रश्न यह भी है कि हरियाणा पुलिस ने जिस निर्दोष व्यक्ति को कुछ समय तक यर्थात् अपराधी व अंततः निरपराध माना उनके इस आपराधिक कृत्य के लिये अभी तक संबंधित कर्मचारियों अधिकारीयों के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं की गई? क्या बोलने वाले समूह के मुख पर एवं लिखने वालो की कलम पर अंकुश लग गया हैं? दूसरा उच्च न्यायालय द्वारा स्वयं स्ंा ज्ञान लेकर उस न्यायाधीश के अंतरिम आदेशो की न्यायिक समीक्षा क्यों नहीं की गई? जिसने मशीन वश पुलिस द्वारा मंागे जाने पर पुलिस रिमांड व पुनःन्यायिक रिमांड दिया। इससे यह लगता हैं कि हमारी दंड़ प्रक्रिया संहिता में पुलिस द्वारा जो जांच की प्रक्रिया निर्धारित हैं, वह पूर्णतः वर्तमान समय की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती हैं। न्यायाधीश भी प्रकरण के गुण दोष पर गंभीर रूप से विचार किये बिना पुलिस द्वारा रिमाड मांगे जाने पर व जमानत का अभियोजन द्वारा विरोध किये जाने पर मशीन वश अभियोजन के अनुरोधानुसार आदेश पारित कर देते हैं जिससे चार्जशीट होने तक की प्रक्रिया कानून का मशीनी रूप से पालन करना मात्र रह गया हैं। इस घटना में एक और बड़ी कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया जाना आवश्यक हैं कि जब सीबीआई ने यह तय कर लिया कि कंडेक्टर अशोक हत्या का मुख्य अपराधी नहीं हैं, तथा दूसरे व्यक्ति (विद्यार्थी) को हत्या का आरोपी बना दिया गया हैं तब उस कन्डक्टर अशोक को तुरंत क्यों नहीं छोड़ा दिया गया व न्यायालय ने भी तुरंत छोडने के आदेश क्यों नहीं दिए। लगभग 70 दिन के बाद उसे जेल से रिहा किया गया। रिहाई के बावजूद वह अभी भी सह अभियोगी हैं। अर्थात् एक निर्दोष व्यक्ति की रिहाई का आदेश देते समय न्यायाधीश ने न्यायिक रूप से अपनी बुद्धि का उपयोग नही किया जिस कारण समय लगा। शुरू मे भी उसी व्यक्ति को पुलिस रिमंाड देते समय भी न्यायिक बुद्धि का प्रयोग नहीं किया गया और तुरंत रिमाड़ दे दिया। न्यायिक व्यवस्था का यह बड़ा विरोधाभास हैं जो इस हत्या कांड में अपनाई गई प्रक्रिया से दृष्टिगोचर होता हैं। कानूनी प्रक्रिया के इस अंर्तविरोध को दूर कर हमारी न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत करना होगा। समस्त कर्मियो पर किसी भी पक्ष द्वारा क्रिया-प्रतिक्रिया न देना भी हमारी मानसिकता को ही दुहराता हैं!