अभी हाल में ही मैंने बिहार विधानसभा के आम चुनाव और मध्य प्रदेश के उपचुनावों के संबंध में यह लिखा था कि ‘‘अंकगणित की जीत‘‘ के साथ ही उससे उत्पन्न ‘‘परसेप्शन‘‘ को जीतने पर ही ‘‘जीत पूर्ण‘‘ कहलाती है। किसान आंदोलन को देखते हुए परसेप्शन का उक्त सिद्धांत संसद एवं सरकार द्वारा लागू अधिनियम एवं लिए गए निर्णयों पर भी पूर्ण रूप से लागू होता है। ‘‘एक तिनके से हवा का रूख पता चल जाता है,’’ जहां कितने ही अच्छे निर्णय लिए गए हो, यदि उससे उत्पन्न ‘‘परसेप्शन विपरीत‘‘ आ रहा है तो, उसे ठीक करने का दायित्व भी सरकार का ही है, तभी वह कानून अथवा निर्णय सही व अच्छा कहला पाएगा। परसेप्शन का यह सिद्धांत सरकार द्वारा किसानों के हितों के संबंध में जारी तीनों अध्यादेशों पर पूरी तरह से लागू होता है, जिसको लेकर किसान खेती छोड़कर खेत से निकलकर प्रदर्शन हेतु रोड़ व चौराहे पर आ गए हैं।
सरकार के लिये ‘‘आफत की पुडि़या’’ बने तीनों अध्यादेशों और किसान आंदोलन के संबंध में काफी कुछ सुना, लिखा व पढ़ा जा चुका है। परन्तु मैं यहां उनको दोहराउंगा नहीं। यहां पर मैं आपसे इस संबंध में सिर्फ दो मुख्य बातें बाबत जरूर शेयर (चर्चा) करना चाहूंगा। प्रथम इन तीनों अध्यादेशों में सरकार की नजर में ‘‘गुणों‘‘ को छोड़कर और विपक्ष की नजर में ‘‘कमियों‘‘ को छोड़कर ऐसी कौन सी बात है, जिसको लेकर न तो सरकार किसानों को समझा पा रही है और न ही किसान समझ पा रहे हैं। दूसरी सरकार व किसानों के बीच उत्पन्न पररेप्शन के भाव!‘‘कौन‘‘ ‘‘कितना‘‘ ‘‘जिम्मेदार’’।
सर्वप्रथम आपको इस बात को समझना आवश्यक होगा कि, सरकार ने इन तीनों अध्यादेशों के द्वारा किसानों की फसल की खरीदी की पुरानी व्यवस्था जिसे सामान्य रुप से मंडी (एपीएमसी) कहा जाता है, उसे न तो समाप्त ही किया है और न ही उसमें कोई विशेष परिवर्तन किए हैं। बल्कि इसके विपरीत कृषकों के लिये वर्तमान मंडी की सुविधाओं के रहते हुए एक और ‘‘सुविधा की खिड़की‘‘ खोल दी गई है। अर्थात अभी तक ‘‘मंडी प्रांगण‘‘ के बाहर किसानों की फसल के खरीदने और बेचने पर जो प्रतिबंध था, उसको मुक्त कर सरकार की ‘‘एक राष्ट्र एक बाजार‘‘ की मूल कल्पना के अनुरूप विकसित कर और अधिक बेहतर सुविधाएं देने का निर्णय मूल रूप से इन अध्यादेशों के द्वारा केंद्रीय सरकार ने लिया है। किसानों के हित में सरकार के इस कदम को ठीक उसी प्रकार से माना जा सकता है, जैसे कि रेलवे टिकट के रिजर्वेशन के लिए एक खिड़की होती है, जिसमें लोगों को अपना आई कार्ड लेकर खड़े होना पड़ता है। सरकार ने सुविधा बढाने की दृष्टि से अब एक दूसरी खिड़की और रिजर्वेशन के लिए खोल दी, जहां पर वे व्यक्ति भी रिजर्वेशन करा सकते हैं, जो अपना आई कार्ड लेकर नहीं आए हैं। इस प्रकार किसानों की अपनी फसल के उचित व अधिकतम दाम प्राप्त होने के लिए एक ‘‘अतिरिक्त सुविधा‘‘ का केंद्र खोला गया है। वर्तमान सुविधा ‘‘छीनी नहीं‘‘ गई है। तब इसका इतना विरोध क्यों?
लेकिन बात इतनी सी सिम्पल (साधारण सी) भी नहीं है, जैसी दिखती है। या देखने का प्रयास किया जा रहा है। किसानों के विरोध का प्रमुख कारण तीनों अध्यादेशों में ‘‘एमएसपी‘‘ (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के उल्लेख का न होना है, एमएसपी की घोषणा प्रत्येक वर्ष फसल आने के पूर्व केन्द्रीय सरकार का ‘‘कृषि लागत मूल्य एवं मूल्य आयोग’’ और तथा ‘‘गन्ना आयोग’’ द्वारा लगभग 23 फसलों के लिए करती आ रही है। ताकि किसानों को उनकी फसल व उत्पादन का उचित मूल्य मिल सके। अलादा, यह अलग विषय है कि इस घोषित एमएसपी के आधार पर सरकार वास्तविकता में खरीदी किसानों के कुल उत्पाद का कितना प्रतिशत और कितनी फसलों के लिए अभी तक कर पाती रही है। इस विषय व शंकर आंकड़ों पर फिर कभी बाद में चर्चा करेंगे।
व्यापारियों (खुदरा विक्रेता रिटेलर्स) के द्वारा शोषण की आशंका वश ही पूर्व में लाइसेंसी मंडी व्यवस्था लागू की गई थी। वर्तमान में वही आशंका (परसेप्शन) पुनः उत्पन्न हो गई है कि भविष्य में इन ‘‘बड़े कारपोरेट खरीदारों‘‘ के ‘‘चंगुल‘‘ में ‘‘बाजार के आ जाने‘‘ पर ‘‘एमएसपी‘‘ नहीं मिलेगी और इस प्रकार किसानों का शोषण हो सकता है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का दिसम्बर 2019 का एक वक्तव्य कि मंडी समाप्त कर देनी चाहिए व दूसरा नीति आयोग का नवंबर 2019 में जारी एक दस्तावेज जिसमें एमएसपी खत्म कर उसकी जगह ‘‘न्यूनतम रिजर्व प्राइस‘‘ लागू करना चाहिए। इस कारण से किसानों की इस आशंका को बल मिलता है। यद्यपि सरकार ‘‘एमएसपी‘‘ देने का वचन व कथन लगातार करती चली आ रही है। किसान चाहते हैं, एमएसपी के संबंध में लिखित बंधनकारी आश्वासन, जिसकी पूर्ति अधिनियम में संशोधन कर उसका प्रावधान करके ही की जा सकती है। क्योंकि तब कानूनी बंधन होने से उसका पालन न होने पर उल्लंघन कर्ता के विरुद्ध दीवानी व अपराधिक न्यायालीय कार्यवाही की जा सकती है। साथ ही सरकार का यह भी कहना है कि पूर्व में भी कहीं भी किसी भी अधिनियम में लिखित में एमएसपी दिए जाने का प्रावधान उल्लेखित नहीं था। यह सरकार का नीतिगत फैसला है, जो कल भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। सरकार के कथन पर और नीतिगत आश्वासन पर किसानों को भरोसा कर विश्वास करना चाहिए। परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि पूर्व में यदि कोई ‘‘मांग‘‘ ( एमएसपी के लिए कानून) नहीं मांगी गई है तो, आज उसकी आवश्यकता महसूस व जायज होने के कारण वह मांग सिर्फ इसलिए न मांगी जाए क्योंकि अभी तक आप उक्त ‘‘मांग‘‘ के बगैर भी कार्य कर रहे हैं।
समस्या यहीं से प्रारंभ होती है। क्योंकि पहले समस्त खरीदी ‘‘मंडी प्रांगण’’ में ही होती थी। जहां पर हर खरीदी का रिकॉर्ड होता था, वहां पर ‘‘एमएसपी‘‘ की निगरानी आसानी से हो सकती है। यद्यपि यह बात भी उतनी ही सही है कि मंडी के अंदर भी यदि सरकारी एजेंसी खरीदी न करें तो जरूरी नहीं है कि कृषि उपज की बिक्री ‘‘एमएसपी‘‘ से ऊपर हो। क्योंकि प्रांगण में रखे ‘ढ़ेर’ (माल) पर लगी अधिकतम बोली ही कृषक की इच्छा पर अंतिम की जा जाती है। वह इसलिये कि ‘‘एमएसपी‘‘ से ऊपर खरीदी करने की नीति/नियम सिर्फ सरकारी एजेंसी पर ही लागू होती है, व्यक्तिगत व्यापारियों या आढ़तियों पर नहीं। मंडी के बाहर खरीदने पर सरकार या उसकी एजेंसी का उस खरीदी का कोई रिकॉर्ड सरकारी एजेंसी के पास न होने के कारण वर्तमान में ऐसा कोई प्रभावी नियत्रंण अथवा निगरानी प्रणाली (सिस्टम) नहीं है कि सरकार इस बात को सुनिश्चित कर सके कि मंडी के बाहर हो रही खरीदी पर एमएसपी से कम में खरीदी नहीं की जा रही है। क्योंकि इसके उल्लंघन होने पर कानूनी प्रावधान न होने के कारण क्रेता के विरुद्ध कोई अपराधिक दंडात्मक कार्यवाही का ड़र नहीं है, जिसकी मांग किसान मुख्य रूप से कर रहे हैं। यदि सरकार की ‘‘मंशा सही‘‘ है तो, उसे ‘‘एमएसपी‘‘ को ‘‘कानूनी जामा’’ पहना देने में क्या आपत्ती व दिक्कत होनी चाहिए? यह कानूनी प्रावधान करके वह उक्त उत्पन्न ‘‘आशंका के परसेप्शन‘‘ (अनुभूति) को समाप्त करके किसानों के विश्वास को जीतकर उक्त अध्यादेश को आसानी से किसानों के हित में लागू कर सकती है। यह कोई नाक का सवाल नहीं है। सरकार नाहक ही ‘‘अंगारों पर पैर रखकर खड़ी है‘‘ किसान देश का अन्नदाता है। उनकी आवाज को एक हितेषी और‘‘सुनने वाली सरकार‘‘ को अवश्य सुनना चाहिए, ताकि स्थिति और खराब होने से बच सकें। क्योंकि ‘‘आग लगा कर फिर पानी के लिए दौड़ने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है’’।
अन्यथा सरकार को यह बतलाना चाहिए कि ‘‘एमएसपी‘‘ का कानूनी प्रावधान किए जाने से किसानों को नुकसान की क्या संभावनाएं है? अथवा इन कारणों से ‘‘एमएसपी’’ को कानून का भाग नहीं बनाया जा सकता है। सिर्फ यह कह देने से ही सरकार का दायित्व व कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता है, कि पूर्व से ही यह कानून का भाग न होते हुये भी सरकार इसको लगातार लागू करते चली आ रही है, इसलिए अभी भी इस (कानून) की कोई जरूरत नहीं है। यद्यपि सरकार का यह कथन पूर्णतया ‘‘सत्य‘‘ है। क्योंकि ‘‘जय जवान जय किसान’’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से लेकर सरदार मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल तक में ‘‘एमएसपी‘‘ का कोई कानूनी नियम न होने के बावजूद देश की समस्त राजनीतिक पार्टीयां व किसान ‘‘एमएसपी’’ के संबंध में सरकार द्वारा की गई नीतिगत घोषणा पर ही अभी तक विश्वास करते रखते चले आए हैं। परंतु वर्तमान में उत्पन्न घने बादल की आशंका के परसेप्शन के कारण सरकार के स्टैंड को उचित व समाधान कारक नहीं कहां जा सकता है। वैसे समय का तकाजा है कि दोनों पक्षों को आगे आकर, बढ़कर परस्पर उन मुद्दों पर चर्चा करके एक ‘‘सहमति के अंतिम तार्किक निष्कर्ष व निर्णय‘‘ पर पहुंचना ही चाहिए। अन्यथा वही स्थिति होगी कि ‘‘अंधे अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत’’। इसके लिए सरकार ने बातचीत के लगातार प्रस्ताव दिए हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है यह कि उसे ‘‘सशर्त प्रस्ताव‘‘ कहकर अस्वीकार किया जा रहा है, जो उचित नहीं है। किसी विशिष्ट जगह पर बातचीत करना ‘‘सशर्त‘‘ नहीं कहलाया जा सकता है। सरकार ने बातचीत आरंभ करने के पूर्व ‘‘आंदोलन वापस लेने की शर्त‘‘ नहीं रखी है, जो सामान्यता सरकारें ऐसी स्थिति में करती हैं। तब ही उसे सशर्त प्रस्ताव जरूर कहा जा सकता है।
इन अध्यादेशों के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि बाजार से बिचोलिये, दलाल दूर होगें। यदि बात सही भी हो (जायज है कि नहीं?) तो, क्या वे बेरोजगार नहीं हो जायेगें? इस बात को किसी ने भी गंभीरता से लिया है? नहीं। देश की वर्तमान व्यापारिक प्रणाली ‘‘उत्पाद‘‘ को ‘‘उत्पादक से उपभोक्ता‘‘ तक पहुचाने के लिये विभिन्न व्यापारिक श्रंखला जो कम से कम 5-6 तक हो जाती है, से गुजारना पड़ता है। प्रत्येक चेन पर माल की लागत बढ़ जाती है। यदि वह व्यापारिक चेन सही है, तो किसानों के उत्पाद के कंजूमर तक पहुचाने में बिचोलियों या मंडी के लाइसेंसी दलाल ‘‘गैर जरूरी‘‘ कैसे हो गये? जबकि समान्यतया कृषक उन्हें अपना हितेषी मानते हैं ।
उक्त अध्यादेशों के संबंध में दो बातें जिसकी चर्चा दोनों पक्ष नहीं कर रहे है, को जानना जरूरी है। प्रथम इन अध्यादेशों से प्रधानमंत्री का ‘‘कालाधन समाप्त‘‘ करने की (वापस लाने की नहीं।) प्रमुख योजना को जाने अनजाने कही न कही धक्का पहुंचने की आशंका है। जब मंडी के बाहर खरीदी की जायेगी, तो निगरानी की कोई प्रणाली न होने के व्यापार के अधिकतम ‘‘दो नंबर‘‘ होने की प्रबल संभावनाएं हो जाएंगी। चंूकि नये अधिनियम में मंडी के बाहर की खरीदी पर मंडी टैक्स नहीं देना होगा, जो स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा के नियम के भी विपरीत होगा। इसीलिए कम से कम मंडी के बाहर होने वाली खरीदी पर समान व्यापारिक शर्तो का नियम लागू करते हुये उतनी ही मंडी टैक्स लगाया जाना चाहिए, जितना मंडी के अंदर देय है, ताकि प्रतिस्पर्धा बराबरी की हो। अन्यथा इस कारण से मंडी में खरीदी न होने के कारण मंडी लगभग अपंग हो जायेगी और विभिन्न सरकारों द्वारा प्रतिस्पर्धा में रहने के लिए मंडी टैक्स कम करना या समाप्त करने की दशा में मंडी का आर्थिक ढ़ाचा ही टूट जायेगा। शायद दूरगामी, दीर्घगामी योजना के अधीन ही मंडी प्रणाली को चुपचाप धीरे-धीरे समाप्त करने की यह योजना है, जैसा कि कुछ आलोचक ‘दलाल’ को दूर रखने के पक्षधर लोगो के तर्क के प्रत्यारोप में कह रहे है। अतः मंडी प्रणाली की खरीदी पर कोई न कोई निगरानी प्रणाली को कानून या उसके निर्मित नियमों के अंतर्गत बनाया जाना चाहिए, ताकि पालन न करने पर दंडात्मक कार्यवाही हो सके।
अंत में विगत दिवस वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान आंदोलन के संबंध में जो कुछ कहा उसे उचित और सही नहीं कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री का यह कथन कि जो हुआ ही नहीं है, और होगा ही नहीं, उसकी भविष्य की आशंका को लेकर किसानों को भड़काया जा रहा है। ऐसा कहकर उन्होंने स्वयं ‘‘आग में घी डालने’’ का कार्य किया है। जब सरकार स्वयं भविष्य को लेकर नागरिकों के हित में दीर्घकालीन योजनाएं बनाती है, (जो घटित नहीं है) लेकिन सुनहरे भविष्य के लिये उनकी कल्पनाएं की जाती है। तब यदि किसान किन्ही निर्णयों, कानून के कारण अपने भविष्य को लेकर कोई चिंता या शंका बाबत बता रहा है, तो उस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है, न कि उसके अस्तित्व में न होने पर उसको अनदेखा या खारिज कर दिया जाए। इसी प्रकार प्रधानमंत्री जी ‘‘भ्रम‘‘ पैदा करने की बात कह रहे हैं। ऐसा लगता है कि ‘‘अंतडि़यों के बल खोलने में जुटी’’ सरकार किसानों के आंदोलन के संबंध में ‘‘स्वयं भ्रम‘‘ में है। ‘‘भ्रम व परसेप्शन‘‘ में अंतर होता है। निश्चित रूप से ‘‘भ्रम‘‘ ‘‘कृत्रिम रूप‘‘ से (आर्टिफिशली) उत्पन्न किया जाता है, जैसा कि प्रधानमंत्री दावा कर रहे है। जबकि ‘‘परसेप्शन’’ की गई कार्यवाही के तरीके से स्वभाविक ‘‘प्राकृतिक रूप से उत्पन्न भाव होता‘‘ है। वास्तव में यहां पर पूरा मुद्दा ‘‘परसेप्शन‘‘ को ठीक करने का ही है, जैसा की मैंने लेख के प्रारंभ में ही लिखा है। इसलिये उत्पन्न परसेप्शन को सही परिपेक्ष में लाइये। देशहित में यह ‘‘संयुक्त दायित्व’’ है जिसकी पूर्ति की ओर आशा भर नजर से टकटकी लगाये हुये पूरा देश देख रहा है। सरकार राज हठ छोड़कर राज धर्म निभाये। किसान हठधर्मी छोड़कर नागरिक धर्म निभाये। निश्चित रूप से समस्या का निराकरण हो जायेगा। ‘कल’ की सुन्दर भविष्य की प्रतिक्षा कीजिये!