मध्यप्रदेश के निवासी विनायक शाह ने देश के 1125 केन्द्रीय विद्यालयों में 50 वर्षो से लगातार हिन्दी-संस्कृत में की जा रही प्रार्थना पर रोक लगाने के लिये दायर याचिका पर केन्द्रीय विद्यालय संगठनों एवं केन्द्र सरकार को नोटिस जारी करके जवाब मांगा हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं हैं कि 50 वर्षो से अधिक जारी उक्त ‘‘प्रार्थना’’ प्रक्रिया पर किसी भी भागीदार (विद्यार्थी) ने स्वयं या अपने अभिभावक के माध्यम से आज तक कोई आपत्ति नहीं की। दूसरी बात आज तक इतने सालो में पढ़ चुके विद्यार्थियों या वर्तमान में पढ़ रहे विद्यार्थियों मे से किसी ने भी कोई आपत्ति दर्ज करके रोक लगाने की मांग ही नहीं की। उच्चतम न्यायालय पहुँचे याचिकाकर्ता विनायक शाह का भी यह दावा नहीं हैं कि वे स्वयं केन्द्रीय विद्यालय में पढ़े हैं या उनके बच्चे केन्द्रीय विद्यालय में पढ़े या फिलहाल पढ़ रहे हैं। तब सबसे बड़ा प्रश्न तो यही हैं कि विनायक शाह की इस विषय में अधिकृत स्थिति (लोकश स्टेंडी) कितनी औचित्य पूर्ण हैं? दूसरी बात उच्चतम न्यायालय के पास वैसे ही लम्बित याचिकाओं की लम्बी फेहरिस्त हैं जो समयाभाव के कारण शीघ्र सुनवाई पर नहीं आ पा रही हैं इनमे कई महत्वपूर्ण याचिकाएं भी होगी जिनकी सुनवाई शीघ्र आवश्यक हैं। तब इस तरह की बेतुकी याचिका की सुनवाई करके समय खपाने का कितना औचित्य हैं, यह भी एक बड़ा प्रश्न हैं?
भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी हैं और संस्कृत भाषा हमारी ‘‘संस्कृति’’ में समायी हुई मूल हैं, तो प्रार्थना हिन्दी-संस्कृत में नहीं होगी, तो क्या इंग्लिश, उर्दू, अरबी, यहूदी इत्यादि अन्य किसी विदेशी भाषा में होगी? क्या अन्य किसी देश का ऐसा उदाहरण हैं जहां राष्ट्र भाषा को छोड़कर दूसरी विदेशी भाषा में सरकारी शिक्षा संस्थाओं में प्रार्थना होती हैं? तो फिर हमारे देश में ही ऐसी उम्मीद क्यों की जाती हैं? शायद इसलिये कि सहष्णुता का असहिष्णु आवरण ओढ़ाने का अनर्गल प्रयास केवल हमारे देश में ही किया जा सकता हैं।
क्या प्रार्थना करने मात्र से बच्चे की धार्मिक स्वतंत्रता खत्म हो जाती है या खत्म हो गई?ं क्या प्रार्थना करने मात्र से नास्तिक बच्चा आस्तिक बन सकता हैं ? क्या प्रार्थना का इतना गहरा प्रभाव हो रहा हैं कि उसके तथाकथित शाब्दिक अर्थो का पालन विद्यार्थी अपने जीवन में कर लेते हैं अथवा उतार लेते हैं? ये सभी मुद्दे याचिकाकर्ता ने उठाये हैं। क्या प्रथम दृष्ट्या उच्चतम न्यायालय को सब समझ नहीं पड़ रहा हैं। कि पी.आई.एल. फाईल करना आज कल क्या एक शगूफा एवं प्रसिद्धी पाने तथा कई बार ब्लैकमैलिंग करने का माध्यम नहीं बनते जा रहा हैं? ऐसे बेतुके उद्देश्यों को लेकर फाईल की जाने वाली याचिका पर अविलम्ब रोक लगाने की आवश्यकता हैं, न कि उसे बढावा देने की। माननीय उच्चतम न्यायालय को इस तरह की पी.एल.आई. को स्वीकार करने के पूर्व इस तथ्य को ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक हैं कि (कम से कम) पीड़ित व्यक्ति या व्यक्ति वर्ग से ही तथाकथित संवैधानिक अधिकारो की सुरक्षा को लागू करवाने के लिए अपनी याचिका लेकर न्यायालय की शरण में आये। यदि नागरिक अपने मूल अधिकारो तथा कर्तव्यों के प्रति जाग्रत नहीं हैं तो न्यायालय का काम उसे जाग्रत करने का नहीं हैं? यह कार्य शासन तथा उससे भी ज्यादा सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं एवं सामाजिक व राजनैतिक दलों का हैं। इसके बावजूद भी यदि वे नागरिक जो उन्हे संविधान द्वारा दिये गये अधिकारो के प्रति जाग्रत नहीं हैं उन्हे तो अपने हाल पर छोड़ देना ही उचित होगा। कहा गया हैं जब तक बच्चा रोयेगा नहीं मां अपने प्राण से भी ज्यादा प्यारे बच्चे को दूध नहीं पिलाती हैं। मुद्दे की बात यह है कि ऐसे विषय पर अविलम्ब एक संयत नीति बनाने की है न कि किसी एक घटना मात्र पर तुरंत कार्यवाही करने की हैं।