माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध दिल्ली सरकार की अपील पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देकर जो व्यवस्था की, उसका घोषित प्रभाव यह हुआ कि संवैधानिक रूप से दिल्ली में न तो मुख्यमंत्री ही और न ही उपराज्यपाल सर्वोच्च है। उच्चतम न्यायालय ने चुनी हुई सरकार के महत्व को स्थापित करते हुये दिल्ली प्रदेश के संबंध में यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया कि लोकतंत्र में सत्ता का अधिकार चुनी हुई सरकार के पक्ष में ही होना चाहिये तथा मत्रिमंडल के निर्णय को उपराज्यपाल को मानना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि दिल्ली प्रदेश अन्य प्रदेशो के समान एक पूर्ण राज्य नहीं है,बल्कि कुछ विशिष्ट शक्यिाँ लिये हुये केन्द्र प्रशाषित राज्य ही है। इसलिए तीन विषयों जमीन, पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़ शेष विषयों में दिल्ली सरकार (मंत्रिमंडल) द्वारा लिये गये निर्णयों को उपराज्यपाल को मानना चाहिए, बल्कि उच्चतम न्यायालय ने एक कदम आगे जाते हुये यह भी कहा कि दिल्ली के एलजी राज्यपाल नहीं बल्कि प्रशासक है। उच्चतम न्यायालय ने दोनो पक्षों को समझाते/लताड़ते हुये कहा कि न किसी की ‘तानाशाही’ होनी चाहिये और न अराजकता वाला रवैया होना चाहिये। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय नेे एक ऐसा निर्णय दिया है जिसे सभी पक्ष अपनी विजय मानकर हृदय की गहराई से स्वयं की जीत मान कर पीठ थप थपा रहे है और जश्न मना रहे हैै। लेकिन वास्तव में यह जीत उच्चतम न्यायालय की है। जिसने सभी पक्ष के मन में अपने निर्णय के प्रति गहन विश्वास पैदा किया है। यद्यपि यह भी सत्य है कि कोई भी पक्ष अपने को हारा हुआ स्वीकार नहीं करना चाहता है, क्योकि राजनीति में अनुभूति (पर्सेप्शन) एक महत्वपूर्ण कारक होता है। इसलिये समस्त जनता पक्ष के बीच अपने को जीता हुआ बताकर पिछले तीन साल की संवैधानिक असफलता में अपने पक्ष को मजबूत बताने के लिये उच्चतम के निर्णय का ही सहारा ले रहे है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय द्वारा दिल्ली राज्य के उपराज्यपाल को राज्यपाल नहीं प्रशासक है कह कर उपराज्यपाल के प्रति कड़क भाव को ही व्यक्त किया है। फिर भी ‘अराजकता’ व ‘राज’ के बीच सीमा रेखा खींचने के बावजूद उच्चतम न्यायालय स्पष्ट रूप से उपराज्यपाल व मुख्यमंत्री के अधिकार एवं अधिकार क्षेत्र के विभाजन करने से बचती रही। इसलिये उच्चतम न्यायालय ने यह अंत में यही कहा कि विवाद की स्थिति में दोनो पक्षों को अपना मामला मिल बैठकर आपस में सुलझाना चाहिए। साथ ही मंत्रिमंडल का कोई निर्णय संविधानोंत्तर होने की स्थिति में मतभेद की स्थिति में ही विवाद को राष्ट्रपति के पास भेजा जाना चाहिए।