अंततः महामहिम राष्ट्रपति ने आप के 20 विधायको को लाभ के पद पर होने के कारण उत्पन्न हुई कानूनी अयोग्यता की चुनाव आयोग की सिफारिश को स्वीकार कर लिया। अतः उच्च न्यायालय में सोमवार को सुनवाई होने वाली आप के विधायको की याचिका भी शून्य हो गई। इसीलिये उनके द्वारा उक्त याचिका को दिल्ली उच्च न्यायालय से वापस ले ली गई। युवा वकील प्रशांत पटेल द्वारा वर्ष 2015 में राष्ट्रपति के समक्ष 21 विधायको के विरूद्ध संसदीय सचिव के पद पर नियुक्ति के कारण लाभ के पद पर होने के कारण उन्हे अयोग्य घोषित करने के लिए याचिका लगाई गई थी, जिसे उन्होने चुनाव आयोग को आवश्यक कार्यवाही हेतु भेज दिया था। मामला लगभग दो वर्षो से लम्बित था। लेकिन अचानक रिटायरमेंट के पांच दिन पूर्व आयोग ने उक्त याचिका पर निर्णय कर, अयोग्य घोषित करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज दी जो केजरीवाल की नैतिकता एवं वैधानिकता के बीच झूल गई। ‘आप’ के दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा इन विधायको को संसदीय सचिव के लाभ के पद पर नियुक्त किया गया था तब उनके इस कृत्य को गैर कानूनी माना जाकर इसकी उपरोक्तानुसार शिकायत की गई थी। तभी अरविंद केजरीवाल को यह लगा था कि संभवतः संसदीय सचिव लाभ का पद होने के कारण ये नियुक्तियाँ अवैधानिक हो सकती हैं। अतः उनके द्वारा संसदीय सचिव के पद को लाभ की श्रेणी से हटाकर छूट की सीमा में लाने हेतु विधेयक विधानसभा में पारित किया गया (जैसे कि मध्यप्रदेश सहित अन्य कई विधानसभाओं में प्रस्ताव लाकर कानून बनाया गया था।) लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा उस विधेयक को वापिस कर दिये जाने के कारण वह कानून का रूप नहीं ले सका। यद्यपि कानूनन् केजरीवाल को एक संसदीय सचिव नियुक्त करने का अधिकार हैं। लेकिन यह अपने में एक तथ्य हैं कि कई राज्यो की विधानसभा में संसदीय सचिव के लाभ के पद की अयोग्यता को कानून बना कर हटा दिया गया हैं। केन्द्रीय सरकार ने भी इस तरह के कई लाभ के पदो को अयोग्यता की सीमा से बाहर लाकर संसद सदस्यों की सदस्यता को अछ्ण बनाये रखा। इसी कारण से सोनिया गांधी संसद सदस्य के साथ लाभ के पद भी धारण किये हुई थी, निर्णय के पूर्व ही संसद सदस्ता से इस्तीफा देकर पुनः चुनाव लड़कर जीती। जया बच्चन को भी इसी कारण से इस्तीफा देना पड़ा था। यहां पर जो लोग अरविंद की नैतिकता की बात कर रहे हैं व उनसे नैतिकता के आधार पर इस्तीफा मांग रहे हैं वे लोग यह भूल जा रहे हैं कि वे स्वयं गैर नैतिक रहते हुये विधायिका के बहुमत का दुरूपयोग कर कानूनी अयोग्यता को छूट की सीमा में कानून बनाकर लाकर उन्होने उसे वैधानिक बनाया। अतः क्या राजनैतिक लाभ व सत्ता बनाये रखने के लिये अयोग्यता को वैधानिक बनाने के तौर तरीको को नैतिक कहा जा सकता हैं, एक बड़ा प्रश्न यह भी हैं? लेकिन इससे भी बड़़ा प्रश्न केजरीवाल की नैतिकता की वह लक्ष्मण रेखा हैं जो उन्होनेे स्वयं उस अन्ना आंदोलन के दौरान आगे बढ़ कर खींची थी, और वह बड़ी नैतिकता किसी मजबूरी में स्वीकारी हुई नहीं थी, बल्कि वैकल्पिक राजनीति की तलाश में सही जन-जन-नेता बनने के प्रयास में, अन्ना के पेड़ की छाया तले अरविंद केजरीवाल ने खुले दिल से उक्त महती नैतिकता स्वीकार कर नई राजनैतिक पार्टी को जन्म देकर, नई वैकल्पिक व्यवस्था को आगे बढाने का प्रयास पूर्ण नैतिकता के साथ किया था। तभी तो उन्होने दो वर्षो के भीतर ही दिल्ली में 70 सीट में से 67 सीट जीत कर अभूतपूर्व बहुमत प्राप्त कर ऐेतहासिक रूप से सत्ता प्राप्त की थी। आज वही केजरीवाल नैतिकता से परे कानून की दुहाई देकर चुनाव आयोग के सिफारिश पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहे हैं? कानून एवं प्राकृतिक न्याय के आधार पर उनकीे आपत्ति व आरोप सही हो सकते हैं, लेकिन उनके द्वारा नैतिकता की गड़ी गई परिभाषा के आगे वह दूर-दूर तक कहीं नहीं ठहरती हैं। ठीक इसी प्रकार जब उच्च न्यायालय में मामला सोमवार को सुनवाई हेतु लगा हुआ था, तब चुनाव आयोग की सिफारिश पर महामहिम द्वारा सुनवाई के पूर्व ही हस्ताक्षर करना कितना ‘‘नैतिक’’ हैं, यह प्रश्न भी स्वभाविक रूप से उठेगा ही। जब आप के विधायको ने महामहिम राष्ट्रपति से इस संबंध में मुलाकात का समय माँगा था, तब वे यह जानते हुये भी कि वे लोग चुनाव आयोग की इस अयोग्यता की सिफारिश के संबंध में ही मिलना चाहते हैं, उनसे मिलने के पूर्व ही महामहिम द्वारा सिफारिश को स्वीकार कर लेना भी कितना नैतिक कहा जा सकता हैं? चुनाव आयोग के वकील का उच्च न्यायालय के समझ यह कथन कि आयोग ने राष्ट्रपति को सिफारिश भेज दी हैं अथवा नहीं, यह जानकारी वे आयोग से नहीं ले सके हैं, क्योंकि कार्यालय बंद हो गया था, यह भी कितना नैतिक हैं, जबकि सार्वजनिक रूप से (पब्लिक डोमेन में) यह बात आ चुकी थी की चुनाव आयोग द्वारा अयोग्यता की सिफारिश राष्ट्रपति को भेजी जा चुकी हैं। मगर मुख्य चुनाव आयुक्त जो कि 5 दिन बाद रिटायर्ड होने वाले हैं के द्वारा लम्बित याचिका पर अचानक निर्णय दे देना भी कितना नैतिक हैं, प्रश्न यह भी हैं? कांग्रेस व भाजपा का इस मुद्दे पर केजरीवाल से इस्तीफा मांगना कितना नैतिक हैं? जबकि कई प्रदेशों में उनकी स्वयं की सरकारो ने इन पदो को लाभ के पद से मुक्त करने के लिये कानून बना दिया था। इसलिये यह बात नैतिकता की नहीं, बल्कि कानूनी मुद्दा हैं। कम से कम भाजपा व कांग्रेस के लिये भी यह कानूनी मुद्दा होना चाहिये। निश्चित रूप से केजरीवाल के लिये भी अपनी नैतिक गलती को नैतिकता पूर्व स्वीकार करके आत्मावलोकन करने का एक बड़ा अवसर हैं, क्योकि नैतिकता की यह सीमा उन्होने स्वयं ही आगे आकर लिखी थी, ओढी थी। कानूनी रूप से वे उक्त पद को कानूनी लाभ दिलाने में असफल हो गये थे। लेकिन यह हमारा ही देश हैं जहां नैतिकता लिये हुये कानून का राज सिर्फ दूसरो पर ही लागू किया जाता हैं स्वयं पर नहीं लेकिन ‘‘लाभ’’ स्वयं पर लागू किया जाता हैं दूसरो पर नहीं किया जाता हैं।