पाँच प्रदेशों में हुये विधानसभा चुनावों में तीन विधानसभाओं में कांग्रेस सरकारें बनने जा रही है। कांग्रेस पार्टी द्वारा तीन प्रदेशों में मुख्यमंत्री चुनने की प्रक्रिया की औपचारिकताओं की (औपचारिक) पूर्ती की जाकर विधायक दल द्वारा अंतिम निर्णय लेने का अधिकार परम्परा अनुसार हाई कमान अर्थात राहुल गांधी को दे दिया है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री चुनने के लिए राहुल गांधी ने ‘‘शक्ति एप’’ के माध्यम से कांग्रेस कार्यकर्ताओं की राय अलग से माँगी हैं। लेकिन अभी तक निर्णय नहीं हो पाया हैं। इस तरह एक ओर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को एक कदम आगे बढ़ाने के आर्कषित करने वाले राहुल गांधी के इस कदम से दूसरी ओर इससे कही संवैधानिक लोकतंत्र की हत्या तो नहीं हो रही है? प्रश्न यह पैदा होता हैं। ईवीएम के बदले ‘‘शक्ति एप’’ के द्वारा मुख्यमंत्री चुनने की प्रक्रिया क्या सही हैं? कहीं यह दिखावा मात्र तो नहीं है? प्रश्न यह भी है?
भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद विधायक दल की बैठक बुलाकर पार्टी विधायकों द्वारा नेता का निर्वाचन किया जाता है। इस तरह चुने गए बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन का सरकार बनाने का दावा पेश करता हैं। अर्थात नवनिर्वाचित विधायक दल ही मुख्यमंत्री चुनता है। फिर चाहे वह विधायक दल के बाहर के व्यक्ति को क्यों न नेता चुन ले। लेकिन संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि चुनाव परिणाम धोषित हो जाने के बाद कार्यकर्ता (मतदाताओं) का एक बड़ा समूह (विधायक दल के बाहर के व्यक्ति) मुख्यमंत्री चुनने के लिये अपनी राय प्रथृक से दे सकें। जनता द्वारा अपने विधायक प्रतिनिधि का चुनाव कर देने के बाद विधायक का मत ही उस क्षेत्र की जनता का मत माना जायेगा। इस तरह चुने गए विधायकांे के द्वारा मुख्यमंत्री चुनना ही संवैधानिक प्रक्रिया व प्रचलित पद्धति हैं।
शायद, राहुल गांधी, केजरीवाल (जिन्होने जनता के सीधे मतो द्वारा उम्मीदवार चुनने से लेकर अन्य कई मामले में यह पद्धति अपनाई) के समान भारतीय लोकतंत्र को एक कदम और आगे ले जाना चाहते है। जहाँ वह अपने कार्यकर्ताओं की लोकतांत्रिक रूप से प्रत्यक्ष दिखने वाली भागीदारी मुख्यमंत्री चुनने में करना चाहते है। सिद्धान्त स्वरूप यह बात बड़ी अच्छी व आर्कषक लगती है। लेकिन भविष्य में इसके अवांछित परिणाम क्या हो सकते है इस पर गंभीरता से विचार करने कीं आवश्यकता है।
मान लीजिये एक ओर राहुल गांधी को मध्यप्रदेश के मामले में कार्यकर्ताओं का मत सिंधिया के पक्ष में मिलता है, परन्तु दूसरी ओर बैठक विधायक दल कमलनाथ के पक्ष में मत देता हैं तब राहुल गांधी क्या करेगें? यदि वे कार्यकर्ताओं के मत को मानते हुये सिंधिया को चुन लेते है तो इस प्रकार क्या उस जनादेश का अपमान नहीं होगा जिसमें नवनिर्वाचित विधायकगणों ने अपना बहुमत कमलनाथ के पक्ष में दिया है। इसके विपरीत कमलनाथ को चुन लेने की दशा में राहुल गांधी को क्या कार्यकर्ताओं की राय की अवेहलना नहीं करना पड़ेगा। तब इस तरह अलग से उनकी राय लेने का औचित्य क्या रह जायेगा। राहुल गांधी का उक्त प्रयास क्या इस तरह मात्र एक जुमला बनकर नहीं रह जायेगा?