पांच राज्यांे में साथ-साथ हुये गोवा विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन सरकार बनाने में असफल रही। भाजपा ने न केवल बहुमत होने का दावा पेश किया बल्कि विधानसभा में विश्वास मत जीतने में भी सफल रही। गोवा के मुद्दे पर न केवल राजनैतिक मत, बल्कि वैधानिक मत भी बंटा हुआ हैं। इसके चलते कांग्रेस ने न केवल वरिष्ठ वकील एफ.एस.नरीमन के विचारो को प्रचारित कर आधार मानकर राज्यपाल के निर्णय की न केवल कड़ी आलोचना की बल्कि लोकसभा में भी हंगामा मचाया। मनोहर पर्रिकर बहुमत के प्रति न केवल स्वयं आश्वस्त थे बल्कि उन्होंने आशानुरूप सदन के पटल पर उसे सिद्ध भी कर दिया। गोवा के मामले में माननीय उच्चतम् न्यायालय के द्वारा पूर्व में एस.आर.बोम्मई के प्रकरण में दिये गये प्रतिपादित सिद्धान्त का बार-बार हवाला देकर कांग्रेस का यह कहते और मानते रहना कि ‘‘राज्यपाल महोदय को सबसे बडे़ राजनैतिक दल होने के कारण कंाग्रेस को सरकार बनाने के लिये निमंत्रण देना ही चाहिये था और बहुमत का निर्णय सदन के पटल पर ही किया जाना चाहिए था’’ व्यर्थ ही साबित हुआ।
निश्चित रूप से एस.आर. बोम्मई व अन्य कई निर्णयों में माननीय उच्चतम् न्यायालय ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया हैं कि बहुमत का निर्णय सदन के इतर राज्यपाल भवन अथवा अन्य स्थान में नहीं बल्कि विधानसभा के पटल पर ही होना चाहिए। लेकिन एस. आर. बाम्ेमई के निर्णय के बावजूद, (जिसमें बहुमत के निर्णय के बिन्दु के अलावा 16 अन्य बिन्दु भी थे) सबसे बड़ी पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिए दावा पेश करने में असमर्थ रहने पर व इसी बीच दूसरी पार्टी द्वारा (अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन बनाकर) बहुमत दर्शाते हुए दावा प्रस्तुत कर दिए जाने की स्थिति विशेष में राज्यपाल के पास उक्त गठबंधन के नेतृत्व में सरकार बनाने के लिये निमंत्रण देने के अलावा अन्य कोई विकल्प ही नहीं बचा रह गया था। एस.आर.बेाम्मई का प्रकरण व गोवा के प्रकरण में तथ्यों में मूलभूत अंतर हैं। एस.आर.बोम्मई के मामले में कर्नाटक के मुख्यमंत्री जनता दल के एस.आर.बोम्मई के द्वारा मंत्रिमडंल का विस्तार करने के दो दिन पश्चात् ही जनता दल के विधायक मंलाकेरी ने 19 विधायको के पत्र के साथ राज्यपाल को बोम्मई सरकार से समर्थन वापसी का पत्र लिखा जिसके पश्चात् राज्यपाल ने सरकार को भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेजी व तदानुसार कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागु कर दिया गया था जिसे उच्चतम् न्यायालय गलत करार कर यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि बहुमत का निर्णय सदन के पटल पर ही होना चाहिए। परन्तु गोवा में राजनैतिक परिस्थितियों को भॉंपते (शायद पार्टी में विभाजन की स्थिति के मद्वेनजर) हुये कांग्रेस कोई दावा प्रस्तुत करने में न केवल अनिश्चित देरी लगा रही थी बल्कि (राज्यपाल द्वारा भाजपा को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने तक) विधायक दल का नेता भी नहीं चुन पा रही थी।
इन परिस्थितियों में राज्यपाल के पास क्या विकल्प रह गया था? जब एक पार्टी सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करे तब दूसरे विरोधी पक्ष को उसकी सूचना देने का राज्यपाल का दायित्व क्या संविधान में लिखा हैं? अथवा एक पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिये बहुमत का दावा प्रस्तुत कर देने के पश्चात् तक दूसरी पार्टी द्वारा कोई विरोध अथवा दावा प्रस्तुत नहीं कर पाने की स्थिति में उससे चर्चा करने का क्या कोई संवैधानिक व नैतिक बाध्यता हैं? इस सबका उत्तर नहीं में हैं। यहां यह भी उल् लेख करना सामयिक होगा कि उत्तर प्रदेश में क्रमशः मायावती व आम आदमी पार्टी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि बहुमत न मिलने कि दशा में वे विपक्ष में बैंठना पसंद करेगें। न किसी को समर्थन देंगे, न किसी का समर्थन लेगे। यद्यपि गोवा में कांग्रेस ने इस प्रकार की कोई घोषणा नहीं की थी। लेकिन चुनाव परिणाम के बाद नई सरकार बन जाने तक उसके कृत्य लगभग ऐसे ही थे। कांग्रेस के द्वारा सरकार बनाने का प्रयास, दावे या इच्छाशक्ति कुछ भी राज्यपाल के सामने प्रस्तुत नहीं किए गये। अतः राज्यपाल के पास सिवाय मनोहर पर्रिकर को निमंत्रित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था। कंाग्रेस के द्वारा कहा गया कि सरकार बनाने के लिये नेता चुनने व दावा करने की कोई समय सीमा नहीं होती हैं व उसे सरकार बनाने के लिये उचित समय नहीं दिया गया। जबकि उत्तर प्रदेश में भाजपा को नेता चुनने व सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिये तुलनात्मक रूप से (11 से 19 मार्च) तक काफी समय दिया गया था।
राज्यपाल पर एक तरफा जल्दबाजी के आरोप लगाये गये। सरकार बनाने की कोई समय सीमा संविधान में निर्धारित नहीं हैं, इससे इंकार नहीं हैं। न ही कोई न्यूनतम सीमा, न ही कोई अधिकतम सीमा। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल हैं वहां पर भाजपा द्वारा नेता चुनने में की जा रही देरी के बावजूद राज्यपाल के पास दूसरी पार्टी, पक्ष या गठबंधन का सरकार बनाने का कोई दावा सामने नहीं आया था और न ही कोई अन्य सरकार बनाने की स्थिति में था। स्पष्ट रूप से भाजपा के पास वहां तीन चौथाई बहुमत था। जबकि गोवा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कंाग्रेस ने दावा पेश ही नहीं किया और जो पार्टी चुनाव में हार गयी थी व जिसका मुख्यमंत्री भी हार गया था, उसने अन्य पार्टीयों से गठबंधन कर बहुमत का दावा पेश किया था दिया एवं सरकार बनाकर बहुमत भी सिद्ध कर दिया। कंाग्रेस पार्टी के द्वारा राज्यपाल के उक्त निर्णय को उच्चतम् न्यायालय में चुनौती दी गई। माननीय उच्चतम् न्यायालय में भी कांग्रेस पार्टी ‘‘बहुमत का दावा या, आंकड़ा या शपथ पत्र पेश करने में असफल रही जैसा कि न्यायालय ने अपने आदेश में कहां भी हैं।
वास्तव में कांग्रेस पार्टी को अपने नेता के चुनाव करने में पसीना आ रहा था। गोवा में उनकी पार्टी के चार-चार भूतपूर्व मुख्यमंत्री जीत कर आये थे जिसके कारण नेता के चुनाव में हुई देरी के लिये उनके आंतरिक राजनैतिक अडं़गे थे। इसी परिस्थिति विशेष का खामियाजा कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ा। माननीय उच्चतम् न्यायालय ने भी कंाग्रेस की अपील को खारिज कर दिया। उच्चतम् न्यायालय के पूर्व निर्णय एस.आर. बोम्मई बंधनकारी हैं लेकिन वर्तमान प्रकरण एवं पूर्व प्रकरण में तथ्य साम्यता नहीं हैं। ‘‘पूर्ण बंेच’’ का निर्णय ही ‘‘युगल पीठ’’ पर बंधनकारी होता हैं। उच्चतम् न्यायालय को अपने पूर्व निर्णय पर पुनर्विचार करने का भी अधिकार हैं। अतः यह स्पष्ट हैं कि कांग्रेस गोवा में एक और राजनैतिक लड़ाई हार चुकी हैं।