‘‘कोरोनावायरस’’ ‘‘(कोविड़-19)’’ के संक्रमण को रोकने के लिये कमोवेश पूरे विश्व में लाॅकडाउन की नीति अपनाई, जिसके परिणाम स्वरूप आज विश्व के लगभग 200 देशों की आधी से ज्यादा आबादी घर में कैद है, और आर्थिक रथ का चक्का जाम हो गया हैं। इसके बावजूद कमोवेश कुछ को छोड़कर प्रायः हर देश में संक्रमित मरीजों की संख्या में औसतन वृद्धि ही हो रही है।हमारा देश भारत भी इससे अछूता नहीं बचा है। तो फिर क्यांे न यह माना जाए कि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिये लाॅकडाउन की नीति ही मूल रूप से गलत हैं? इसलिए कि इससे संक्रमण को रोकने के घोेषित उद्देश्य की प्राप्ति तो हुई नहीं ? अलावा इसके परिणाम स्वरूप सभी देशों का आर्थिक स्वास्थ्य बीमार हो जाने के कारण इससे पैदा हुई दूसरी नई (आर्थिक) बीमारी के चलते अधिकांश देश बेरोजगारी व आर्थिक मंदी के गर्त में चले गये। आज विश्व में कुल संक्रमितों की संख्या लगभग 6740321 व भारत में 233045 है। इन संख्या को दो भागों ‘‘लाॅकडाउन के पूर्व’’ व ‘‘लाॅकडाउन के बाद में‘‘ बांट कर देखें तो, आइने के समान यह स्पष्ट हो जाता है कि, लाॅकडाउन रहने के बावजूद, अधिकतर देशों में संक्रमितों की संख्या में लगातार वृद्धि ही होते जा रही है।
वृद्धि के इन आंकड़ों के घन-चक्कर मंें हम अभी तक पूर्ण रूप से यह सुनिश्चित निष्कर्ष ही नहीं निकाल पा रहे हैं कि, कोरोना वायरस से बचने के लिए लाॅकडाउन के औचित्य को सिद्ध करने के लिये जो मुख्य तीन सावधानियाँ बरतने की सलाह दी गई है, क्या वे पूर्णतः प्रमाणिक सिद्ध (साधन) हैं? व पर्याप्त है? ये तीन मुख्य सावधानियां है (1) मास्क पहनना (2) 6 फीट की मानव-दूरी बनाये रखना और (3) निरतंर सफाई (सैनिटाइजेशन) करते रहना। इनके अतिरिक्त तापमान जांच (र्थमल स्क्रीनिंग)े की भी सलाह दी गई है। साथ ही अधिकतम कोरोना टेस्टिंग को सर्वथा सावधानी वाला कदम संक्रमण रोकने के लियें बतलाया गया है। आइये, अब जरा इन सावधानियांे व जांचों की पूर्णता व प्रमाणिकता की लाकडाउन के सापेक्ष में चर्चा कर, देखें।
सर्वप्रथम मास्क की बात लंे। तीन तरह के मास्क बतलाये गये हंै। ट्रिपल लेयर (40 प्रतिशत संक्रमण से बचत), सिक्स लेयर (80 प्रतिशत संक्रमण से बचत) व एन-95। शुरू शुरू में यह बताया गया था कि रेटिंग एन-95 वाले मास्क सर्वश्रेष्ठ हैं। परन्तु बाद में, सांस लेने में तकलीफ महसूस करने वाले मरीजों को इस एन-95 मास्क का अधिक समय तक उपयोग नहीं करने की सलाह भी दी गई है। मास्कों के उपयोग के संबंध में एक बात और स्पष्ट की गई है कि, खांसी, जुकाम, बुखार या छीकें नहीं आती हों तो, सामान्यतया मास्क पहनने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन सावधानी के लिये सामने वाले व्यक्ति के संक्रमण से बचने के लिये यह जरूरी है। सर्वप्रथम प्रश्न तो यही है कि, हमारे देश के लोगों की आदतों के मद्देनजर संक्रमण को रोकने के लिये क्या मास्क पूरी तरह से सुरक्षित हैं। हमारे देश के अधिकांश नागरिकों को मास्क पहनने की आदत नहीं है। इसलिये वे जब मास्क पहनते हंै तो, उसे ठीक करने के लिये बार-बार उनका हाथ आंख, नाक व मुँह को स्पर्श करता हैं, जो वस्तुतः हमारे डी.एन.ए. में ही शामिल है। ऐसे स्पर्श से एकदम बचने की सलाह डाॅक्टरों द्वारा दी गई है। क्योकि इस तरह के स्पर्श से वायरस हमारे शरीर को संक्रमित कर सकता है, जो मास्क लगाने के उद्देश्य को ही व्यर्थ सिद्ध कर देता है। यह भी बतलाया गया है कि, कोरोना वायरस शरीर में आँख, नाक, मुँह, व कान के जरिये ही शरीर में पंहुच सकता है। इसीलिये फेस मास्क लगाने की बात भी की गई है। चश्मा पहनकर भी आंखों के स्पर्श को रोका जा सकता है। अतः इन सबसे यह स्पष्ट है कि कम से कम मास्क, फेस मास्क व चश्मे के उपयोग के लिये तो लाॅकडाउन लागू करने की कतई आवश्यकता नहीं है।
अब आइये! दूसरी सुरक्षा सावधानी, याने अपने हाथों को सैनिटाइजर, साबुन या हेड़वाश से लगातार धोते रहने की चर्चा कर लंे। सही तरीके से बार-बार हाथ धोयें। हाथ मिलाना छोडे़, नमस्ते करें। सैनिटाइजर के संबंध में यह कहा गया है कि, उसमें कम से कम 60-70 प्रतिशत अल्कोहल होना चाहिये। कुछ जगहों पर ऐसे सैनिटाइजर (अल्कोहल युक्त) के उपयोग करने पर आग लगने के समाचार भी सामने आये है। स्पष्ट है स्वच्छता बनाये रखने के लिये उपरोक्त वस्तुओं के उपयोग के साथ तापमान जांच व टेस्टिंग के लिये भी लाॅकडाउन जरूरी नहीं है।
इस लेख के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर आने के पूर्व मैं आपका ध्यान इस बात की ओर भी आकर्षित करना चाहता हूं कि, एक अनुमान के अनुसार, संक्रमित रोगी के ठीक होकर निगेटिव रिपोर्ट आ जाने के बावजूद भी इनमें से 14 प्रतिशत लोगों की फिर से (वायरस की) पाजिटिव रिपोर्ट आई, है जिसे बाउसिंग बैक कहा गया है। यह वायरस के फिर से संक्रमण से बैक (वापस) होने के कारण नहीं हो रहा है, बल्कि रोगी की प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाने के कारण, शरीर में पहले से ही मौजूद कमजोर पड़े वायरस के उसके पुनः शरीर पर हमला कर देने से हो रहा है। क्या ऐसे मरीजों को लाॅकडाउन के द्वारा संक्रमित होने से बचाया जा सकता है?
आईये अब, मुख्य मुददे पर आ जायें। कोरोना संक्रमण को रोकने का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण मूल हथियार प्रायः पूरे विश्व में सोशल डिम्टेसिंग, ह्नयूमेन डिस्टेसिंग या मानव-दूरी को ही माना गया है। सोशल डिस्टेसिंग का मूल उद्देश्य संक्रमित व्यक्ति के नजदीक आने पर विषाणु युक्त कणों के आँख व नाक या सांस के रास्ते आपके शरीर में प्रवेश करने पर रोक लगाना है। परस्पर बातचीत से भी ‘‘वायरस’’ संक्रमण हो सकता है, इसलिये भी मानव-दूरी की आवश्यकता बतलाई गई है। मूलतः 6 फीट की मानव-दूरी की मूल सावधानी को बनाये रखने के लिये ही लाॅकडाउन घोषित करना पड़ा था। कोरोना वायरस के बदलते रूप, व्यवहार के कारण कोरोना के लक्षण जैसे फ्लू, बुखार, नजला, सर्दी, जुकाम, खांसी, सांस लेने में तकलीफ होना आदि कोई भी लक्षण का दिखना भी अब जरूरी नहीं माना जा रहा है। अर्थात बिना किसी लक्षण के भी कोई व्यक्ति कोरोना संक्रमित हो सकता है। स्वाद या गंध का महसूस न होना भी कोरोना के नये लक्षण बतलाये गये है। यह कहा गया है कि संक्रमित व्यक्ति के खांसने, छींकने से मुँह से निकलने वाली छोटी-छोटी बूंदो के ड्राप लेटस अधिकतम 6 से 12 फीट की दूरी तक की सतह पर गिर सकते है, जो हवा में भी काफी समय तक तैरते रहते हैं व सतह पर 1-2 दिनों से लेकर कभी कभी 9 दिनों तक भी जिंदा रह सकते हंै। अतः छींकने व खांसने के दौरान स्वयं अपने मुँह पर अपनी कोहनी रखें तथा जो लोग छीक या खांस रहे है, उनसे मानव-दूरी बनाये रखें।
मानव-दूरी बनाये रखने के उपरोक्त समस्त कारणों के बावजूद यदि बिना मानव-दूरी बनाये फेस मास्क लगाकर किसी भी सतह को न छूने की सावधानी बरतते हुये हम जीवन व्यतीत करे, तो भी क्या कोरोना वायरस संक्रमन होगा? उत्तर यदि ‘नहीं’ है, तो फिर मानव-दूरी की आवश्यकता क्यों है? और यदि मानव-दूरी की आवश्यकता नहीं है तो फिर, लाॅकडाउन की आवश्यकता क्यों है? लाॅकडाउन करके देश का आर्थिक लाॅकडाउन क्यों कर दिया गया?
एक बात और। जब सरकार व सामाजिक संगठनांे ने मीडिया व अन्य विभिन्न प्रचार साधनों के माध्यम से देश के नागरिकों को यह बता दिया था कि, कोराना वायरस से संक्रमित होने से बचने के लिये मास्क पहनना, बार-बार हाथ धोना, सैनिटाइजेशन करना व मानव-दूरी बनाये रखना जरूरी है। तब कुछ प्रतिशत नागरिक जो उपरोक्त सावधानियां नहीं बरत रहे है, जिस कारण वे राष्ट्रीय महामारी अधिनियम 1897 व अन्य कानूनों के उल्लघंन करने के दोषी होने से अपराधी हैं। तो फिर ऐसे अपराधियों को उनके स्वयं के द्वारा बरती गई लापरवाही के लिये, (उनके जीवन को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से), उनके हित को बहुसंख्य नागरिकांे के हित व देश हित (आर्थिक मंदी) से ऊपर रखकर, लाॅकडाउन बढ़ाया जाना, क्या कदापि उचित कदम था? लाॅकडाउन बढ़ाते समय सरकार व विपक्ष सभी को इस बात को भी समझना चाहिये था।
याद कीजिए! किसी भी विपक्षी दल ने ‘‘लाॅकडाउन की नीति’’ का संैद्धान्तिक विरोध नहीं किया। बल्कि विरोधी पाटियों के कुछ मुख्यमंत्रियों ने तो राष्ट्रीय लाॅकडाउन 2, 3 व 4 बढ़ाने की घोषणा के पूर्व ही, स्वयंमेव लाॅकडाउन बढ़ाने की घोषणा कर दी थी। केन्द्र ने भी मुख्यमंत्रियों व विपक्ष से लगातार चर्चा व नागरिकों से मांगे गये सुझावों के उपरांत ही लाॅकडाउन बढ़ाया था। इसके बावजूद विपक्षी दल राजनीति के तहत, अब लाॅकडाउन घोषित करने की नीति को ही गलत बताने में लगे हुए है। यानी ‘‘चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी’’। राहुल गांधी का लाॅकडाउन को विफल कहने वाला आज का बयान तो निहायत ही गंदी राजनीति का निकृष्ट नंगा प्रदर्शन मात्र है। वे प्रधानमंत्री पद के कांग्रेस के घोषित उम्मीदवार है। ऐसे छाया (शैड़ो) प्रधानमंत्री (जैसे ब्रिटेन, न्यूजीलैंड में) होते हुये उन्होंने तत्समय सुझाव क्यों नहीं दिये? तब स्पष्ट रूप से लाॅकडाउन गलत क्यों नहीं ठहराया ? जो उनका दायित्व था। राहुल गांधी का उक्त कथन वैसे ही है, जैसा कि उनके द्वारा अमेठी से स्वतः फार्म भरने के बावजूद चुनाव हार जाने के उपरान्त फार्म भरने के उनके निर्णय को ही स्वयं गलत बतलाना।
ठीक इसी प्रकार सत्तापक्ष के पास भी इस बात का कोई तर्क संगत उचित जवाब नहीं है कि, लाॅकडाउन यदि सफल रहा है तो, दिन प्रतिदिन संक्रमितों की संख्या में इतनी तेजी से बढ़ोत्री क्यों हो रही है?यदि काल्पनिक कोरोना वृद्धि (20 लाख मरीज स्वास्थ्य विभाग का एक पूर्वानुमानुसार) को रोका गया है, तो फिर लाॅकडाउन-04 की समाप्ति के बाद तेजी से बढ़ती हुई चिंताजनक संख्या के आंशका के रहते, स्वास्थ्य विभाग केे आंकलन (उपरोक्तानुसार) से काल्पनिक मरीजों की संख्या देढ़ दो करोड़ से भी ऊपर जा सकती है। तो फिर इसे रोकने के लिए लाॅकडाउन आगे बढ़ाकर लाॅकडाउन-05 घोषित क्यों नहीं किया गया? मतलब साफ है कि कोई भी कोरोना के भविष्य का सही सही आंकलन नहीं कर सकता है। इसीलिए देश को कोरोना वायरस के लगभग 3 प्रतिशत मृत्यु दर के आंकड़ों के साथ बावजूद हर हालत में जीने की आदत के साथ आर्थिक पहिये पीछे जाने से रोककर, उसे आगे ले जाना ही पड़ेगा। यही बात मैं पिछले दो महीने से लेखों में लिख रहा हूँ।
उपरोक्त निष्कर्ष पूर्णतः नहीं तो यदि निकटतम भी सही हंै, तो फिर देश में इतना लम्बा लाॅकडाउन लगाकर आर्थिक स्थिति को गर्त मंे क्यों धकेला गया? वित्त मंत्रालय का आज ही जारी नई योजनाओं पर एक साल तक रोक लगाने का निर्देश खराब आर्थिक स्थिति का ही घोतक है। जीडीपी ग्रोथ का घड़ाम से गिरकर न केवल उसका ग्राफ का लगभग समतल हो जाना बल्कि उसके और ऋणात्मक स्थिति का अनुमान की आंशका बताई जा रही है। आखिर, हुये इस नुकसान की भरपायी कैसे होगी? व कौन करेगा? मात्र अधिकतम 7 दिन का लाॅकडाउन घोषित करके क्या जनता को शिक्षित व सचेत नहीं किया जा सकता था? क्या वह पर्याप्त नहीं होता? स्पष्ट है, सरकार ने आर्थिक स्थिति के गर्त में पंहुच जाने के बाद अनलाॅक-1 की जो घोषणा की है, वह अधिकतम प्रथम लाॅकडाउन के तुरंत बाद ही कर देना चाहिये था, जिससे कम से कम देश की आर्थिक ट्रेन तो पटरी से नहीं उतरती। इस तरह ‘‘जान व जहान’’ दोनों बच जाते व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उक्त मंत्र सिद्ध भी हो जाता तथा देश आंशिक रूप से गलत नीति के लागू होने से उत्पन्न संकट से भी बच जाता।