राजस्थान में राज्य सभा के हो रहे चुनाव के संदर्भ में कांग्रेस का यह बयान आया है कि, राजस्थान में भी भाजपा ने मध्य प्रदेश के समान ही‘ ऑपरेशन कमल‘ पर अमल करना शुरू कर दिया है। भाजपा खरीद फरोख्त के द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को गिराने का प्रयास कर रही है। विधायक दल के सचेतक द्वारा इसकी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को भी शिकायत की गई है। भाजपा के ऑफरेशन लोटस का ‘‘खौफ‘‘ इतना ज्यादा है कि स्वयं की सरकार पर्याप्त बहुमत के होते हुए भी राजस्थान के मुख्यमंत्री को अपने विधायकों की ‘मनः स्थिति की सुरक्षा‘ के लिए उन्हें शारीरिक रूप से लगभग बंधक जैसी स्थिति में फाइव स्टार रिसॉर्टस में रखना पड़ रहा है। वैसे भी इस कोरोना कॉल की संकटकालीन अवधि में वीआईपी लोगों के द्वारा क्वॉरेंटाइन होने के लिए फाइव स्टार होटलों का उपयोग तो बहुत हो रहा है। लेकिन क्या यहां पर विधायकों को सामूहिक रूप से रखा जाएगा, ताकि वे एक दूसरे का चेहरा (हाव भाव) देखते रहकर अपना मनोबल बनाए रख सकें, जिससे उनकी मनः स्थिति स्थिर रह सकें। अथवा प्रत्येक विधायक को अलग-अलग क्वॉरेंटाइन में रखकर ‘अर्थ‘(धन) रूपी शहद के साथ लिपटे हुए विपक्षी विचारों से दूर रखकर, अपने मूल विचारों को बनाए रखने में यह ‘क्वॉरेंटाइन की यह एकाग्रता उनके काम आएगी? यह फिलहाल शोध का विषय है।
लेकिन आज मैं यहां पर इस विषय की चर्चा करना चाहता हूं व इस बाबत कई बार लिख भी चुका हूं कि हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा परिपक्व होता हुआ लोकतंत्र है। परंतु क्या हमारे देश में लोकतंत्र वास्तव में ‘परिपक्व‘ हो रहा है? वर्तमान ‘‘राजनीति’’ ने यह प्रश्न पैदा कर दिया है। गुजरते समय के साथ-साथ हमारा तथाकथित परिपक्व लोकतंत्र मूल और मौलिक सिद्धांतों को ही भूलते व त्यागते जा रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा, बल्कि ज्यादा उचित होगा कि हमारे राजनैतिक नेता गण, ‘‘लोकतंत्र’’ को उसके मूल और मौलिक सिद्धांतों से दूर लेकर जा रहे हैं। वैसे भी सिद्धांत बचे कहां है? इसलिए सिद्धांतों की बात करना ही बेकार है व समय की बर्बादी मात्र ही हैं।
लोकतंत्र में शासक नेता चुनाव के द्वारा चुना जाता है। बहुमत वाली पार्टी को राज्यपाल सरकार बनाने के लिए निमंत्रित करता है। सरकार पांच साल की अपनी कार्य अवधि पूर्ण करने के पश्चात, अपने कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों के आधार पर पुनः जनता के बीच जाकर वोट मांग कर दुबारा सत्तारूढ़ होने के लिये जनता से आदेश लेने का प्रयास करती है। लोकतंत्र की यही परिपक्व व्यवस्था होनी भी चाहिये। जब भी सरकार अपनी घोषणा पत्र द्वारा निर्धारित दिशा से व प्राप्त जनादेश से विमुख हो जाती हैं, तब जनता उसके विरोध में खड़ी हो जाती है। चुनी गई सरकार के विरुद्ध संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार के रहते, जनविरोधी नीतियों और कार्यों के विरुद्ध प्रदेश व्यापी आंदोलन खड़े हो जाते हैं, और सरकार को कार्य करने में अत्यधिक कठिनाई होने लगती है। तब अपनी अकर्मण्यता व अपने अलोकप्रिय कार्यों के पापों के भार तले, दबकर सरकार को इस्तीफा देने के लिये मजबूर होना पड़ता है। ऐसी स्थिति से उत्पन्न रिक्तता को भरने के लिए विपक्षी दल बहुमत का दावा कर सकते हैं। राज्यपाल की ‘‘संतुष्टि‘‘ होने पर राज्यपाल उन्हें सरकार बनाने के लिए बुलावा दे सकते हैं। अतः स्पष्ट है लोकतंत्र में सरकार बनाई जाती है, गिराई नहीं। बल्कि पाप व अंर्तकलह के कारण वह स्वयं के मार से घड़ा भरने पर गिर जाती है। जबकि गिराने वाला दल हमेशा ही ऐेसा दावा करता है जैसा कि कोरोना काल में मध्य प्रदेश में हुआ था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के वायरल होते बयान ने उक्त स्थिति को और स्पष्ट कर दिया।
लोकतंत्र की यही सही परिभाषा है। लोकतंत्र वह नहीं है, जहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई चलती हुई सरकारों को ‘धनबल‘ ‘बाहुबल‘ के प्रलोभन और दबाव के आधार पर संख्या बल का अंकगणित साध कर, गिरा कर सरकार बनाने का दावा पेश किया जाए? एक श्रेष्ठ व स्वयंम ‘‘लोकतंत्र’’ में सरकार गिरना स्वयं के पापों व कार्यो की अक्षमता का परिणाम होना चाहिए। उसमें विपक्षी दल की कोई उत्प्रेरक का तड़का लगाने की भूमिका नहीं होनी चाहिए। रिक्त स्थान की पूर्ति करने लिए मध्यावधि चुनाव से बचने के लिए सामने वाले की तुलना में अपने से बेहतर प्रदर्शन का दावा करते हुए ही नई सरकार बननी चाहिए। लेकिन ‘‘महाराज’’! क्या आज हम देश के किसी भी प्रान्त में ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं? और यदि नहीं, तो फिर क्या अब समय इस बात पर गंभीरता से विचार करने का नहीं आ गया है, जब दल बदल विरोधी कानून को पुनः इस तरह से संशोधित किया जाए, ताकि विधायकों की खरीद फरोख्त पर वास्तविक रोक लग सके। इसके लिए वर्तमान दल बदल विरोधी कानून में संख्या नियम का प्रावधान कर संशोधित किये जाने की आवश्यकता है। वर्तमान में जो भी विधायक दल बदल विरोधी कानून के वर्तमान प्रावधानों को परास्त करने के उद्देश्य से इस्तीफा देकर सरकार गिराने में सहयोग करते है, भागीदार बनते है, उनके उसी जगह से (जहां से वह 6 महीने के भीतर चुनाव लड़कर पुनः विधायक बन जाते है) विधानसभा की बची शेष अवधि के लिए होने वाले उप-चुनाव लड़ने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। अर्थात इस्तीफा देने के बाद उस विधायक को शेष अवधि के लिए चुनाव लड़ने की पात्रता कदापि नहीं होनी चाहिए। तब इस तरह से दल बदल विरोधी कानून का मजाक नहीं उड़ाया जा सकेगा। इस प्रकार यह संशोधन दल बदल विरोधी कानून को प्रभावी रूप से उसमें निहित भावनाओं के अनुरूप लागू करने में कारगर सिद्ध होगा। पहले मध्यप्रदेश, फिर गुजरात व राजस्थान राज्यों में कोरोना काल में घट रही ऐसी राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने वाली ‘‘बीमारी’’ को क्या कोरोना वायरस ठीक कर कुछ अन्य अच्छाई के समान भी यह अच्छाई भी कोरोना काल की कुछ उपलब्धियों में जुड़ जायेगी? जय हो कोरोना देवी!