जिस बात की आशंका ‘‘गैंगस्टर’’ विकास दुबे की गिरफ्तारी के समय उत्पन्न हो रही थी व कतिपय क्षेत्रों में व्यक्ति भी की गई थी, वह अंततः चरितार्थ सही सिद्ध हुई। मुठभेड़ की घटना के पूर्व ही माननीय उच्चतम न्यायालय में एक वकील द्वारा दायर याचिका में भी उक्त आंशका व्यक्त की गई थी। यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी, खासकर मीडिया ने भी उक्त आशंका व्यक्त की थी। लेकिन इतनी जल्दी मुठभेड़ (‘‘एनकाउंटर‘‘) हो जाएगी, यह आशा (आशंका) शायद नहीं थी।
इस ‘‘एनकाउंटर की सत्यता‘‘ को मानने के पूर्व आपको पहले यह तय करना होगा कि विकास दुबे को पुलिस ने ‘‘वास्तव‘‘ में गिरफ्तार किया है या उसने ‘‘आत्मसमर्पण‘‘(सरेंडर‘‘) किया? तकनीकि रूप से और अभिलेखनुसार (रिकॉर्ड) उसे उज्जैन पुलिस ने गिरफ्तार किया है, यह निसंदेह है। लेकिन ‘‘दुर्दांत गैंगस्टर’’ विकास दुबे ‘‘आपराधिक प्रवृत्ति, प्रकृति का एक शातिर चालाक अपराधी था‘‘। अंतः उसकी उन चालाक प्रवृत्तियों व शातिर दिमाग को साथ में रखकर समस्त विद्यमान वर्तमान समग्र स्थितियों पर पर उसकी गिरफ्तारी होने की स्थिति सामान्य ज्ञान से विचार कीजिये! तो निश्चित रूप से यह बात लगभग उभर कर आती है कि विकास दुबे ने मुठभेड़ से अपनी जान बचाने की दृष्टि से या तो स्वयं योजनाबद्ध तरीके से आत्म समर्पण किया है, या‘‘ अपने प्रभावी सूत्रों‘‘ के सहारे से, आत्मसमर्पण को गिरफ्तारी का ‘‘जामा पहनाया‘‘ गया है।
गिरफ्तारी के समय के वृतांत का थोड़ा सा भी चित्रण देख ले तो, स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती हैं। यह बतलाया गया कि विकास दुबे के प्रसिद्ध उज्जैन ‘‘महाकाल मंदिर’’ पहुंचने पर उसने फूल वाले से यह पूछा कि मंदिर के दर्शन कहां से होते हैं कैसे होते हैं ? विकास दुबे की मां कथन है कि, उसका बेटा विकास हर साल ‘‘महाकाल‘‘ के दर्शन करने जाता है। तब विकास द्वारा महाकाल दर्शन के बाबत उक्त जानकारी लेने का प्रश्न ही कहां पैदा होता है? विकास की मां के कथन पर विश्वास करना पड़ेगा, क्योंकि दूसरी तरफ उनने यह भी कथन किया है, कि उसका बेटा अभी समाजवादी पार्टी में हैं। जिस तथ्य को सत्य मानकर भाजपा के प्रवक्ता मीडिया में बार-बार बता रहे हैं। 30 वर्ष वाले व्यक्ति की गलत आईडी प्रस्तुत कर आईडी वाला नाम भी न बतलाना क्या उसकी बेवकूफी को दर्शाता है? वह किसी ने किसी बहाने वहां मौजूद सुरक्षा गार्ड का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता था, यही ज्यादा सत्य है।
गिरफ्तार या लगभग कस्टड़ी में लिये आरोपी व्यक्ति की ‘‘महाकाल मंदिर‘‘ में जाने से लेकर निकलने तक के ‘‘फुटेज‘‘ देखिए, स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। ऐसा लग रहा है कि, विकास दुबे निजी सुरक्षा गार्ड एवं एक पुलिस कॉन्स्टेबल को स्वयं लगभग ‘‘लीड‘‘ हुए करते हुए आगे बढ़ते दिख रहा है। जहां शुरू में में कुछ समय तक किसी भी सुरक्षा गार्ड ने उसके शरीर को दबोचा हुआ पकड़ा नहीं है? यदि विकास को भागना ही होता, जैसा कि ‘‘मुठभेड़ के कारण में‘‘ बतलाया जा रहा है तो, उसके पास महाकाल मंदिर के परिसर में एनकाउंटर स्थल से ज्यादा अच्छे अवसर भागने के थे। क्योंकि तत्समय तब वहां पर न तो भारी मात्रा में एसटीएफ फोर्स थी और न ही स्थानीय पुलिस का घेरा था। ‘‘मैं विकास दुबे हूं कानपुर वाला‘‘, विकास दुबे का यह अजीबोगरीब कथन भी इस बात को पुष्टि करता है कि, वह मुठभेड़ में मारे जाने के डर से आत्मसमर्पण करने ही उज्जैन आया था। उसे अच्छी तरह से मालूम था कि, यदि यूपी पुलिस उसे कहीं भी गिरफ्तार करेगी तो, पुलिस उसे गिरफ्तार करने के बजाय एनकाउंटर में मार डालेगी। गिरफ्तारी के ‘‘पूर्व रात्रि’’ में कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक का महाकाल मंदिर का निरीक्षण और महाकाल चौकी इंचार्ज का तबादला क्या सिर्फ एक संयोग मात्र है? महाकाल मंदिर के प्रभारी एसडीएम होते हैं, न कि कलेक्टर। लगभग 750 किलोमीटर बेरोकटोक चलकर कई नाकों व जिले की सीमाओं को पार कर एक दिन पूर्व उज्जैन पहुंच जाना, सुबह मंदिर जाने के पूर्व स्नान करना, आखिर यह सब क्या दर्शाता है? यदि पुलिस की मिलीभगत नहीं है तो, निश्चित रूप से यह पुलिस के खुफिया तंत्र की पूर्णता विफलता है। तब हमें क्या यह न मानने पर मजबूर नहीं होना पड़ेगा कि विकास दुबे के खुफिया तंत्र को पुलिस ने अपना लेना चाहिए?
आइए; अब मुठभेड़ की घटनास्थल पर चलें। कैसे दुर्दांत अपराधी को पुलिस ने बिना हथकड़ी और जंजीरों में जकड़े एक स्थान से दूसरे स्थान ले जा रही थी? या पुलिस उच्चतम न्यायालय के उस "निर्णय" की रक्षा कर रही थी जिसमें यह दिशा निर्देश दिये गये थे कि, किसी भी अभियुक्त को बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के हथकड़ी न लगाई जावें। यद्यपि उसी उच्चतम न्यायालय ने "प्रेम शंकर शुक्ला" के मामले में यह भी निर्णय दिया है कि ऐसे दुर्दांत आदतन अपराधी को केस डायरी में कारण लिख कर हथकड़ी लगाई जा सकती है। एक प्रश्न सबके मन में अवश्य कौंध रहा होगा कि उज्जैन से कानपुर के लिये रवाना होते समय विकास दुबे की गाड़ी के काफिलों के साथ अन्य गाडियों को 20 कि.मी. दूर रखे जाना उक्त मुठभेड़ किये जाने की (होने की नहीं) शंका को बल देता है। विकास दुबे द्वारा द्वारा पिस्टल छीनने का कथन किया गया है । पिस्टल की सुरक्षा के लिए सिपाहियों ने पैराकॉर्ड को बेल्ट में लगाकर क्यों नहीं बैठे ? विकास दुबे को एसटीएफ द्वारा स्व: सुरक्षा में गोली चलाए जाने पर घटना स्थल पर खून के निशान न देखना पुनः एक प्रश्न चिन्ह लगाता है। गाड़ी कैसे व किन परिस्थितियों मेें पलटी, तुरंत घटना के साथ स्पष्टीकरण न दिया जा कर 10 घंटे बाद यह कहा गया कि 'गाय भैंस का झुंड" आ जाने से गाड़ी पलटी। कमाल देखिए!गाय-भैंस का झुंड भी एक साथ गाड़ी के काफिले के "बीच" की गाड़ी में आ गई। गाय भैंस के झुंड को एक साथ देखने की तमन्ना अब मेरे मन में भी पैदा हो गई है? गाड़ी पलटने पर उसके घसीटे जाने के भी कोई निशान नहीं। क्या पुलिस विकास दुबे की दुर्दांत कुकृत्य से अनभिज्ञ थी? एक दिन पूर्व इसी तरीके से प्रभात मिश्रा की मुठभेड में हुई मौत क्या पुनः एक संयोग है? आगे पीछे की गाड़ियों के बजाय (प्रभात दुबे समान) सिर्फ विकास दुबे की गाड़ी का ही पलटना? दुर्घटना में आई तथाकथित चोटों का अभी तक खुलासा न होना । अर्थात इस पूरे प्रकरण में कितने संयोग पैदा किये गये है? गिरफ्तारी होने के बाद एडीजी प्रशांत कुमार ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि वैधानिक सीमा में रहकर अपराधीयों पर ऐसी कार्यवाही होगी जिसका उन्हे पछतावा होगा। पुलिस कर्मियों की शहादत बेकार नहीं जायेगी।उनका उक्त कथन सत्य तो सिद्ध हुआ, लेकिन उसमें वैधानिकता व उसके पुट का अभाव दिखा। वैसे यह भी सच है कि विकास दुबे को मुठभेड़ में मार ड़ालने से शहीद पुलिस कर्मियों के परिवारों की इच्छा पूर्ति व उन्हे आत्मसंतुष्टि जरूर मिली।"वर्दी" के लिये तात्कालिक रूप से यह एक संतोष की बात हो सकती है।
शायद न्यायिक प्रक्रिया के तहत अभियुक्त को अंजाम तक पंहुचाने में लगने वाला लम्बा समय व सफलता की 100 प्रतिशत गारंटी न होने के कारण ही भुक्त भोगी परिवारों को न्याय दिलाने का यह एक छोटा लेकिन सरल रास्ता मुठभेड़ का अपना कर पुलिस को स्वयं ही न्याय करना पड़ा? क्योंकि पूर्व में वे यही हत्यारे थाने में र्दजा प्राप्त मंत्री संतोष शुक्ला को पुलिस मौजूदगी में ही मार कर, फिर बेदाग छूट भी जाता है। इससे एक बड़ा यक्ष प्रश्न पैदा होता है कि यदि उसका एनकाउंटर नहीं किया जाता या नहीं होता तो, उससे समाज को ज्यादा फायदा होता। क्यों? इसलिये कि मुठभेड़ से मात्र एक दुर्जन हत्यारा स्वयं तो खत्म हुआ, जिसके अत्याचार से पीडि़त क्षेत्रीय जनता भविष्य में सुरक्षित अवश्य हुई। लेकिन जिस शासन, प्रशासन व पुलिस तंत्र ने विकास का ‘‘विकास’’ करते हुये उसे एक गैंगस्टर के रूप में विकसित कर दिया। जिस कारण उस अत्याचारी भावना का जो "विकास" हुआ, वह तो इस मुठभेड़ से समाप्त नही हुआ। यदि विकास को जिंदा रखा जाता तो "खाकी" व "खादी" के संयुक्त संबंधों से विकास दुबे की "पाईप लाईन" में मिलने वाली "रसद" के बाबत उससे जानकारी शायद मिल जाती। तब फिर विकास दुबे तो जेल की सलाखों के पीछे पड़ा सड़ता रहता, लेकिन भविष्य में दूसरा "विकास" व ऐसी दुर्दांत अत्याचारी भावनाओं का विकास न हो सकें, इसके लिये शासन को एक ‘‘स्वेत पत्र’’ जारी कर भविष्य में योजनाबद्ध तरीके से भविष्य में आवश्यक कार्यवाही करने का एक अवसर अवश्य मिल जाता। चूकि इस तरीके में उन लोगो की तथाकथित सफेद चादर पर ‘काले धब्बे' ही नहीं बल्कि पूरी की पूरी पोशाक ही काली हो जाती, जिनके पास यह कार्यवाही करने की शक्ति व जिम्मेदारी है। तभी तो कहा गया ‘‘सैयां भले कोतवाल अब ड़र काहे का’’। लेकिन प्रश्न पुनः यही पैदा होता है कि प्रगतिशील युग में‘‘ इंसान’’? (क्या विकास इंसान था?) को मारकर "इंसाफ" दिलाया जा सकता है?
विकास दुबे द्वारा 2 जुलाई को बिकरू गांव में 8 पुलिस वालों को शहीद कर देने के बाद से इस पूरे मामले में पुलिस की अराजकता के उदाहरण लगातार दृष्टिगोचर हो रहे है। विकास के 5 साथी ‘‘एनकांउटर’’ में अलग-अलग घटनाओं में मारे गये। विकास की लग्जरी गाडियों व मकान को जमीदोज कर दिया गया। किस कानून के तहत? बजाएं कानून का विश्वास बढ़ाने के लिये कानून की प्रक्रिया अपनाई जाकर दंड देने की कार्यवाही प्रांरभ क्यों नहीं की गई? जिस तेजी से विकास गैंगस्टर बनने की ओर विकसित हुआ, क्या उत्तर प्रदेश सरकार उससे भी ज्यादा तेजी से अपने को अराजक होने दे रही है? क्या अपराधी को अंततः फांसी न दिलवाने की अपनी अक्षमता के चलते "तंत्र" में उपस्थित घुन के समान लगे जयचंदों विभीषणों के कारण अपने तय नियत वैधानिक रास्ते के बदले, यह छोटा रास्ता अपनाया गया? यह तब भी सही ठहराया जा सकता था, यदि विकास दुबे से "तंत्र" में घुसे समस्त दीमकों घुनों की जानकारी लेकर उसे सार्वजनिक करते तो "तंत्र" को सुधारने का अवसर भी मिलता जो अवसर सरकार ने खो दिया। याद कीजिए! डाकू मोहर सिंह व माधों सिंह दुर्दांत चंबल के खुखार डाकू थे, जिन्होने 10- 20 नहीं सैंकडों हत्यायें की थी। उन्हे जब समर्पण करने पर )माफी दी जा सकती है, सभ्य नागरिक बनाया जा सकता है। तो विकास दुबे का समर्पण करवा कर उसे एनकाउंटर से "माफी" देकर उसके द्वारा दी जाने वाली "इनपुट" से तंत्र को सुधारने का कार्य नहीं किया जा सकता था ? तब शायद देश का ज्यादा भला होता व ‘‘न्याय’’ भी न्यायिक तरीके से मिल जाता। खैर!
अंततः अपराध के ‘‘विकास’’ का ‘‘राज’’ ‘‘ढे़र’’ कर दिया गया है। क्या यह एनकांउटर एक गैंगस्टर का दूसरे गैंगस्टर (सरकारी?) द्वारा अंत तो नहीं किया गया है? जो क्या व कहां तक उचित है? उक्त मुठभेड़ भविष्य में कुछ दिनों तक अवश्य चर्चा मैं बनी रहेगी।