सृष्टि की सामान्य परिपाटी और प्रक्रियानुसार प्रतिवर्षानुसार की भाँति इस वर्ष भी वर्ष 2017 का समापन हुआ व वर्ष 2018 का आगाज हुआ। विश्व के विभिन्न अनेकानेेक नागरिको के समान ही राष्ट्र के विभिन्न भागो में हम भारतीयो ने भी विभिन्न तरीको से हुये जश्नों में शामिल होकर नये साल का आगाज किया। लेकिन एक देशभक्त भारतीय के लिये क्या वास्तव में वर्ष 2017 का अंतिम दिन और वर्ष 2018 का सूरज वास्तव में वैसी ही खुशी लेकर आया हैं? यह बात न केवल सोचने की हैं, बल्कि यह हमारी आम मानसिक स्थिति के प्रति चिंता भी पैदा करती हैं। मैं हमेशा से ही यह लिखता आया हूँ कोई व्यक्ति, संस्था, नियम-कानून कभी भी पूर्ण नहीं होते हैं। उनमे हमेशा सुधार की गुंजाईश रहती हैं। ठीक उसी प्रकार वर्ष 2017 देश में बहुत सारी उपलब्धियाँ देता हुआ गुजरा, और वर्ष 2018 ने भविष्य में होने वाली अनेकानेक उपलब्धियों की आशा संजोए नये साल में प्रवेश किया हैं। लेकिन वर्ष के अंतिम दिन व नये वर्ष का सूरज जम्मू कश्मीर के पुलवामा ट्रेनिंग कैंप के लेथपोरा इलाके में स्थित केन्द्रीय रिर्जव पुलिस बल के कमाण्ड़ो टेªनिग सेन्टर पर फिदायीन हमले की दुःखद घटना से हुआ हैं, जिसने पाँच जवानो के शहीद होने का संदेश दिया। निश्चित रूप से यह मन को बहुत व्यथित व विचलित करने वाली घटना हैं। ऐसी स्थिति में क्या नागरिकगण उसी उल्लास पूर्वक व उमंग के साथ नये वर्ष की खुशियाँ मना सकते हैं? यह ठीक वैसी ही स्थिति हैं, जब किसी नागरिक के घर में दीपावली पर किसी सदस्य का स्वर्गवास हो जाये, तब वह क्या करेगा? पाँच रक्षकों की शहादत की जिम्मेदारी प्रतिबंधित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने स्वयं आगे आकर ली हैं। तब देश के मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने क्षणिक ब्रेकिंग न्यूज देकर अपने दायित्व की इतिश्री समझ ली और मध्य रात्रि तक नये वर्ष के संगीतमय नृत्य के शोर शराबे में सीमाओं पर सीमा की रक्षा करने वाले वीर बहादुर सैनिको के सीनो पर चली गोलियों की आवाज हमारे दिल से न टकरा कर उक्त शोर शराबे में डूब गई। यह निश्चित रूप से हमारे अकिंचन मन को दुखित कर देने वाली स्थिति हैं। वर्ष 2014 में हुये लोकसभा चुनाव में दो ‘जुमले’ बहुत चले थे। प्रथम गर्दन जमीन पर कटकर पड़ी है, व हम बिरयानी टेबल पर खा रहे हैं। द्वितीय, एक के बदले 10 सिर काट कर लायेगंे। इन जुमलो को जनता ने हाथांे हाथ लिया व अन्य अनेक मुद्दो के साथ ऐतहासिक दो तिहाई बहुमत के साथ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनाई। साढे तीन वर्षो से ज्यादा समय व्यतीत हो जाने के बाद भी 56 इंच के सीने के रहते कितनी गर्दने कट गई, और बदले में कितनी गर्दन लाई गई? यह प्रश्न अभी भी वहीं का वहीं खड़ा हैं? शहीद परिवारो के इस भावुक लेकिन साहसिक प्रश्न का अभी भी उत्तर जनता अवश्य जानना चाहती हैं। प्रत्येक नागरिक के मन में एक प्रश्न अवश्य उठता हैं। इन 43 महीनांे में नरेन्द्र मोदी ने देश की आंतरिक स्थिति में कई उपलब्धियाँ जोड़ी हैं। विदेशो में भी भारत को पहिले से कहीं अधिक मजबूत स्थान दिलाया हैं। वैसा शायद आयरन लेडी पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के जमाने में भी नहीं मिल पाया था। नरेन्द्र मोदी के पूर्व इंदिरा गांधी ने वह अदम्य अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक साहस दिखा कर पाकिस्तान के दो टुकड़े करके नया राष्ट्र बांग्लादेश बना दिया था जिस कारण पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी ने भी इंदिरा को दुर्गा का रूप कहा था। परन्तु इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश बनाने की किसी भी प्रकार की पूर्व घोषणा नहीं करके बड़ बोले पन का परिचय नहीं दिया था जैसा कि आज के ज्यादातर नेताओं में पाया जाता हैं। इसके बावजूद भी उस समय के विश्व के दोनो श्रेष्ठ राष्ट्र (अमेरिका व रूस) के साथ हमारे एक साथ दोस्ताना संबंध नहीं बन सके थे। रूस ने तो बांग्लादेश के युद्ध में पूर्णतः भारत का साथ दिया था जबकि अमेरिका ने (भारत के) विरोध स्वरूप पाकिस्तान के समर्थन में हिन्द महासागर में अपना सातवाँ बेड़ा ही भेज दिया था। लेकिन नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ रूस व अमेरिका से, बल्कि जर्मनी, इंग्लैड़, फ्रंास इत्यादि बड़े यूरोपियन देशों तथा अरब देश व इज़राईल जैसे दो विपरीत ध्रुवो वाले देशो के साथ भी ‘‘पाकिस्तान व चीन’’ के विरूद्ध अपने देश के हितार्थ एक साथ दोस्ती कर राजनैयिक संबंधो को अभी तक की अधिकतम ऊँचाई तक सफलतापूर्वक पहँुचा कर संबंधो को मजबूत बनाने की पराकाष्ठा की हैं। इसी कारण विश्व के राजनैतिक पटल पर सबसे मजबूत अमेरिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड़ ट्रम्प के साथ बगल में खड़े दिख कर मोदी अपना राजनैतिक लोहा मनवा रहे हैं। देश हित में ही (यरूशलम को राजधानी मानने के अमेरिकी फैसले के मामले में) संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका की विश्व देशो को दी गई धमकी के बावजूद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने अपनी पूर्व प्रतिष्ठत निर्गुट विदेश नीति को बनाए रख कर देश के स्वाभिमान को अक्षुण्य रखा हैं। आज जबकि भाजपा (एनडीए) को अटल जी की तुलना में भी श्रेष्ठतर दो तिहाई बहुमत प्राप्त हैं। वहीं मुख्य विपक्षी दल देश के राजनैतिक इतिहास में पहली बार तीन अंको के आकडे़ से घटकर 50 से भी कम पर सिमट गई। यह सब कहने का मतलब यही हैं कि आज जब देश का राजनैतिक नेतृत्व सबसे मजबूत स्थिति मेें हैं जिसने देश के आंतरिक विकास एवं बेहतरी के लिए जीएसटी, नोटबंदी जैसे कई कड़क फैसले लिये हैं, तब देश की सीमा रक्षा व सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों की जिदंगी की सुरक्षा के लिए नरेन्द्र मोदी 56 इंच का सीना अब तक क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं, जिसकी डौण्ड़ी बार-बार पीटी जा रही थी।ं ‘‘56 इंच का सीना’’ भी कहीं ‘‘15 लाख का काला धन’’ हर व्यक्ति के बैंक खातो में जमा होगंे वाले जुमले के समान ही दूसरा जुमला मात्र तो नहीं हैं? वर्ष 2017 का पुनर्रावलोकन करे या कथित प्रथम सर्जिकल स्ट्राईक के बाद से आज तक की देश की सुरक्षा का आकलन करे तो हम पायेगें कि न केवल पिछले वर्ष की तुलना में पाकिस्तान एवं उसके द्वारा निर्देशित आंतकियों द्वारा सीमाओं पर व देश के अंदर आतंकी घटनाओं के उल्लघंन की संख्या अधिक बढी हैं, वरण हमारे सैनिको की शहादत की संख्या भी बढी हैं। यद्यपि दुश्मन देश के मारे जाने वाले सैनिको की संख्या में भी वृद्धि हुई हैं, लेकिन आतंकी घटनाओं की बढ़ी हुई संख्या की तुलना में मरने के अनुपात में कमी आयी हैं। यह बात समझ से बिलकुल परे हैं कि कोई भी घटना के बाद सरकार या मीडिया यह कहते हैं कि बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा, इस शहादत का बदला अवश्य लिया जायेगा। लेकिन कब कैसे व किस सीमा तक? कुछ समय पूर्व ही हमारे एक मेजर व तीन सिपाही शहीद हो गये थे तब भी हमारी मीडिया ने चार दुश्मनो को मारकर बदला लेने की बात की। द्वितीय सर्जिकल स्ट्राइक कही गई व अब तृतीय सर्जिकल स्ट्राइक की बात की जा रही हैं। क्या एक शहीद मेजर की तुलना एक दुश्मन देश के एक दो सामान्य सिपाही को मारने से की जा सकती हैं? मीडिया अति उत्साह में गंभीर घटनाओं का इतने उथले रूप में क्यो लेता हैं। क्या उन्हे अपनी जिम्मेदारी का अंदाजा व अहसास नहीं हैं। भारतीय सेना सीमा के उल्लघंन व आतंकवादी गतिविधियों के घटित होने के तत्पश्चात ही रक्षात्मक कार्यवाही करती रही हैं। भारत दुश्मन देश की तरह ही स्वतः भी आक्रमण की कार्यवाही (जवाबी कार्यवाही नहीं) क्यो नहीं करता हैं। यह प्रश्न समझ से परे हैं। खासकर जब लम्बे समय से हमारे विरूद्ध लगातार कार्यवाही हो रही हैं। आत्मरक्षा के लिये आक्रमण ही सर्वोच्च सुरक्षा मानी जाती हैं। अरब, इज़राइल या अफगानिस्तान का मामला ले, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका न जाने कितने देश हैं जिन्होनें अपने अपने देश की सुरक्षा व सम्मान की खातिर दुश्मन देश के भीतर घुसकर आतंकवादी व दुश्मन सेना को नेस्तनाबूद कर वापिस लौट आई। किसी भी देश ने दूसरे देश के भीतर घुसने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ से पूर्व स्वीकृति नहीं ली या घटना के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने ऐसे देशो पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया। तो क्या अब समय नहीं आ गया हैं जब हमारे राजनैतिक नेतृत्व को भी देश की सम्प्रभुता सुरक्षा व एकता के लिए नई नीति बनाने की तत्काल जरूरत हैं? न कि वर्ष 2022-24 तक इंतजार करने की जैसा कि मोदी सरकार ने कुछ मामलो में टारगेट बनाया रखा हुआ हैं। समय रहते (जो कि वास्तव में गुजरता जा रहा हैं) देश के आत्म सम्मान, गौरव, व सीमा सुरक्षा के लिए एक ऐसा सबक पाकिस्तान को सिखाना निहायत जरूरी हैं ताकि उस पार से होने वाली आतंकी गतिविधियाँ पूर्णतः नष्ट हो जावे और अपने सैनिको की शहादत बंद हो तथा देश व सैनिकों को सुरक्षित निर्भीक जीवन मिल सके। देश के वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व का यह दायित्व हैं कि वे अपने इन कर्तव्यों को शीघ्रता से अमली जामा पहनावे। तभी वे भाजपा के ‘‘अखंड भारत की कल्पना के मूल सिद्धान्त’’ को फलितार्थ करने में एक कदम आगे बढ़ पायेगें। अन्यथा देश की और इस जननी माँ की माटी व सीमा का सम्मान करने वाला दल भाजपा भी यदि इस प्रमुख कार्य को नहीं कर पाएगा तो अन्य किसी दल (जो तुष्टीकरण की नीति पर ज्यादा विश्वास करते हैं) से ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। मीडिया पर सीमा उल्लघंन के द्वारा हुई शहादत के बाद आये समस्त बयान वीरो की एक साथ बाईट दिखलाकर राजनैतिक नेतृत्व को अपना चेहरा आईने में देखने के लिये मजबूर क्यों नहीं करता हैं? या भारत सरकार कम से कम अपने नागरिको को यह विश्वास दिला पाए कि वह दुश्मन राष्ट्र के विरूद्ध सक्षम कार्यवाही कर रही हैं, और मात्र कथन से नहीं वरण सबसे कम निश्चित सीमा में परिणाम जनता के सामने आयेगें, तभी जनता आश्वस्त होगी।