हे कान्हा मेरा अन्त समय जब आये.......
कदम की छाँव हो... यमुना का तट हो....
अधर मुरली हो... माथे पे मुकुट हो.....
खडे हो आप इस बाँकी अदा से.....
मुकुट हो झोकों में मौजें हवा में....
गिरे गरदन लुढक कर.....
कान्हा.....तेरे ही पीत पट पर....
खुली रह जाए आंखें मेरी तेरे ही मुकुट पर...
दुशाले की जगह हो ब्रज की वो धूल....
चढे उतरे हो जहाँ हरशिंगार के फूल....
मिले जलने को लकडी ब्रज के ही वन की....
छिडक दी जाए धूलिया भी तेरे सदन ही की.....
अगर इस तौर से हो अंजाम मेरा.....
बिहारी जी....नाम तेरा भी हो जाए.... काम मेरा भी हो जाए....