अब तक अपने सुना वीणा अपनी छह वर्षीय बेटी के साथ रहती है। दोनों माँ बेटी बहुत संवेदनशील हैं। वीणा ने बेटी की परवरिश बहुत सुंदर तरीके से की है जिससे उसके व्यक्तित्व मे इतनी कम उम्र में दया, विनम्रता जैसे गुण अभी से विद्यमान हैं। इसी के बल पर दोनों एक शाम बाजार में एक गरीब माँ बेटे की मदद करने की कोशिश करते हैं। उस महिला को देख वीणा को अपना अतीत याद आजाता है। अब आगे
उस महिला की स्थिति देख वीणा सोचती है राजश्री जी अगर न होती तो वह भी उसी परिस्थिति में होती सोचते हुए अनजाने ही वह अपने अतीत की यादों में गोते लगाने पहुँच जाती है।
अपने तीन भाई बहनों में दूसरी सन्तान थी वह। पिता का साया तो बचपन मे ही उनके सर से उठ गया था। माँ ने जैसे-तैसे तीनों को पाल-पोसकर बड़ा किया। पढ़ाना तो बहुत दूर, उन्हें रोज़ एक वक्त का पेटभर भोजन मिल जाना ही नसीब की बात थी। कमाना और पेट भरना, उस परिस्थिति में कोई भी साधारण व्यक्ति उसके अतिरिक्त कुछ और सोच ही नहीं सकता था।
पर वीणा नाम के अनुरूप थी जैसे सरस्वती की संगिनी। शुरू से विद्यालय जाने और पढ़ने में उसकी गहरी रूचि थी। लेकिन कभी उसे विद्यालय जाने का सौभाग्य नहीं मिल पाया। बड़ी बहन माँ के साथ काम पर जातीं ।उनके पीछे छोटे भाई को संभालना, उसे नहलाना, खाना बनाना, खिलाना इत्यादि सारी ज़िम्मेदारी वीणा पर ही होती थी। पास के सरकारी विद्यालय में पढ़ने वाली कुछ लड़कियों से जरूर वीणा ने दोस्ती कर ली थी। रोज उनसे कुछ न कुछ सीखने के पीछे पड़ जाती। उसकी सहेलियों में रीता थी, जो हमेशा कहा करती
"कितनी सुखी है तू!!! क्यों इन सब झंझट में पड़ती है! पर वीणा अपनी लगन की पक्की थी। उनके साथ रहते रहते थोड़ा बहुत अक्षर ज्ञान और नैतिक ज्ञान वीणा को होने लगा था।
समय का पहिया अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था। जैसे-तैसे माँ ने दान दहेज इकट्ठा कर वीणा की बड़ी बहन को ब्याहा। दहेज़ के अभाव में वीणा का रिश्ता कहीं हो नहीं रहा था तो माँ ने पहले भाई का घर बसा अपनी जिमेदारी का एक और पड़ाव पार करने की सोची। भाई-भाभी कुछ दिन साथ रहे फ़िर अलग घर बसाकर रहने लगे। अब घर में बस दोनों माँ बेटी रह गईं। एक दिन किसी रिश्तेदार के सुझाए रिश्ते को स्वीकार कर, अपनी अंतिम ज़िम्मेदारी से मुक्त होने के उद्देश्य से माँ ने सुरेश नाम के इस लड़के के साथ वीणा के हाथ पीले कर दिये। उस के परिवार में कुछ दूर के रिश्तेदारों के अलावा कोई नहीं था और सब से बड़ी बात दहेज की कोई माँग न थी। वीणा और उसकी माँ के लिये इससे बेहतर रिश्ता तो हो ही नहीं सकता था।
पर कहते हैं न कि किस्मत में गम लिखे हों तो वजह बन ही जाती है।
अपने घर में लाख परिस्थिति खराब थी, मगर सुख से दो निवाले तो खाती थी वीणा! यहाँ तो पति निकम्मा ऊपर से घोर व्यसनी! शराब पीकर आना और और बात-बेबात वीणा को मारना उसका नित नियम बन चुका था। शाम होते ही वीणा की निर्मम चीखें पूरे मोहल्ले में गूंजने लगतीं। लेकिन कोई उन्हें सुनने, समझने, रोकने या सांत्वना देने वाला न होता। सिर्फ 3 महीने हुए थे वीणा की शादी को और इस बीच उसका एकमात्र सहारा उसकी माँ भी स्वर्ग सिधार चुकी थीं। इन सब घटनाओं और पति के अमानवीय व्यवहार से वह मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह टूट चुकी थी। उसका जीवन बद से बदतर होता जा रहा था। उस दिन भी सुरेश 3 दिन बाद नशे में धुत्त घर आया था।
वीणा से उसने खाना माँगा।
घर मे कुछ था ही नही तीन दिन से, वो खुद भी भूखी ही थी, तो क्या बनाती!?
वीणा के यह कहते ही कि कुछ राशन ले आओ।
उसके अंदर का हैवान जाग गया। वह जोर से चिल्लाया-
"इतने दिन बाद घर आया हूँ! सेवा करना, कुछ खिलाना दूर तू मुझे काम बता रही है!!!
जा खुद ले कर आ!
वीणा जानती थी कि दुकानदार ने पहले ही साफ मुकर चुका है, सामना देने से रहा। पर सुरेश के आगे उसकी एक न चली दुकानदार के सामने मिन्नतें करने के बाद भी वह इस बार न पिघला।
खाली हाथ लौटने पर सुरेश ने अपनी सारी भड़ास वीणा पर निकल दी और फिर घर से बाहर चला गया।
हर बार उसका यही तय कार्यक्रम था।
वह वीणा को पीटता और इस हाल में छोड़ दो-तीन दिन गायब हो जाता। हर बार वीना रो धोकर खुद को संभाल खड़ी होती पर इस बार उसकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। इस बार सुरेश को गए दो हफ्ते हो गए थे। कुछ दिन ये सब सहन करते हुए वह घर में बेजान बुत सी पड़ी रही। मन में चल रही उधेड़बुन को आखिर उसने पीछे धकेला। आख़िरकार उसकी चेतना जागी, उसने निश्चय किया कि वह ईश्वर का दिया ये अनमोल जीवन ऐसे व्यर्थ नहीं करेगी। आज उसने 1 फैसला ले लिया था।
आखिर कहाँ ले जाएगी वीणा को उसकी जिंदगी क्या सोचा उसने भविष्य के बारे में? और क्या होगा उसका फैसला जानने के बाद सुरेश का उसके प्रति व्यवहार?
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