कर्माबाई की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। दूर-दूर से संत उनसे मिलने के लिए आते थे। ऐसे ही एक रोज एक महापुरुष आए और कहने लगे कि कर्माबाई, हर रोज भगवान् तुम्हारे घर भोजन करने के लिए आते हैं। तुम कैसे भगवान् के लिए भोजन तैयार करती हो? कर्माबाई ने अपने सीधे स्वभाव के अनुसार कहा कि मैं प्रभु का स्मरण करते-करते ही भोजन बनाती हूँ। खिचड़ी बनाती हूँ। जिस समय भोजन तैयार हो जाता है, परोसकर रख देती हूँ। भगवान् आकर भोजन कर जाते हैं। महापुरुष कर्माबाई से कहने लगे कि तुम्हें भोजन करने से पहले स्नान करना चाहिए। जिन लकड़ियों के साथ आग जलाती हो उनको धोकर, सुखाकर और लेप करके फिर भोजन तैयार करना चाहिए। यह बात सुनकर कर्मा चिंतित हो गई कि मैंने तो कभी ऐसा सोचा ही नहीं।
कर्माबाई ने दूसरे दिन लकड़ियों को धोकर रख दिया, स्नान किया। चौके की सफाई की और भोजन तैयार करने लगीं। भगवान् हर रोज की तरह नियत समय पर आए और देखा कि कर्मा ने भोजन अभी तैयार नहीं किया था। वे वापस चले गए। कुछ देर बाद कर्मा ने भोजन तैयार कर दिया और परोस दिया। भगवान् आए और भोजन करने लगे। उनके हाथ और मुँह पर अभी खिचड़ी लगी हुई थी कि उसी समय स्वामी रामानंद के दरबार में भी भोजन तैयार करके भोग लगाने के लिए रख दिया गया और रामानंद ने भगवान् को बुला लिया। अकसर ऐसा होता है कि भोजन तैयार कर कपड़े से ढक दिया जाता है और भगवान् का आह्वान किया जाता है। जब भगवान् जल्दी में आए तो रामानंद ने देखा कि भगवान् के हाथ और मुँह पर खिचड़ी लगी हुई है। रामानंद ने पूछा कि प्रभु आप यह खिचड़ी कहाँ से खाकर आए हैं और आप आज इस रूप में कैसे आ गए? भगवान् ने कहा कि मैं रोज कर्माबाई के पास खिचड़ी खाने जाता हूँ। आज किसी महापुरुष ने उसे बहका दिया जिस कारण उसने देर से खिचड़ी बनाई। उसने अभी हाथ धुलाए भी नहीं थे कि आपने याद कर लिया। मुझे उसी तरह उठकर आना पड़ा, हाथ-मुँह धोने का समय नहीं मिला। यह सुनकर स्वामी रामानंद दंग रह गए कि कर्माबाई के घर हर रोज भगवान् खिचड़ी खाने जाते हैं। स्वामी रामानंद कर्माबाई के घर गए और कहा, 'आप हर रोज भगवान् के लिए भोजन तैयार करती हैं और भगवान् हर रोज खिचड़ी खाने आपके घर आते हैं। आपने ऐसी क्या साधना की है, जिसके कारण भगवान् आप पर इतने दयालु हैं?'
कर्माबाई ने कहा कि मैंने तो ऐसी कोई साधना नहीं की, गुरु रविदास की बताई हुई मर्यादा के अनुसार भगवान् का स्मरण करती हूँ और भगवान् के लिए भोजन तैयार कर देती हूँ।
संत रविदास की अन्य किताबें
संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम श्री कालूराम जी, दादी का नाम श्रीमती लखपती जी, पत्नी का नाम श्रीमती लोनाजी और पुत्र का नाम श्रीविजय दास जी है। गुरु संत रविदास 15 वीं शताब्दी के एक महान संत, दार्शनिक, कवि और समाज सुधारक थे. वह निर्गुण भक्ति धारा के सबसे प्रसिद्ध और प्रमुख संत में से एक थे और उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन का नेतृत्व करते थे. उन्होंने अपने प्रेमियों, अनुयायियों, समुदाय के लोगों, समाज के लोगों को कविता लेखन के माध्यम से आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए हैं. लोगों की दृष्टि में वह सामाजिक और आध्यात्मिक ज़रूरतों को पूरा कराने वाले एक मसीहा के रूप थे. वह आध्यात्मिक रूप से समृद्ध व्यक्ति थे. उन्हें दुनियाभर में प्यार और सम्मान दिया जाता है लेकिन इनकी सबसे ज्यादा प्रसिद्धि उत्तरप्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र राज्यों में हैं. इन राज्यों में उनके भक्ति आंदोलन और भक्ति गीत प्रचलित हैं. विदास बचपन से ही बुद्धिमान, बहादुर, होनहार और भगवान के प्रति चाह रखने वाले थे। रविदास जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गुरू पंडित शारदा नन्द की पाठशाला से शुरू की थी। लेकिन कुछ समय पश्चात उच्च कुल के छात्रों ने रविदास जी को पाठशाला में आने का विरोध किया। हालाँकि उनके गुरू को पहले से ही आभास हो गया था कि रविदास को भगवान ने भेजा है। रविदास जी के गुरू इन उंच-नीच में विश्वास नहीं रखते थे। इसलिए उन्होंने रविदास को अपनी एक अलग पाठशाला में शिक्षा के लिए बुलाना शुरू कर दिया और वहीं पर ही शिक्षा देने लगे। गुरू रविदास जी पढ़ने में और समझने में बहुत ही तेज थे, उन्हें उनके गुरू जो भी पढ़ाते थे वो उन्हें एक बार में ही याद हो जाता था। इससे रविदास के गुरू बहुत प्रभावित थे। रविदास जी के व्यवहार, आचरण और प्रतिभा को देखते हुए गुरूजी को बहुत पहले ही यह पता चल गया था कि यह लड़का एक महान समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरू बनेगा। रविदास जी ने धर्म के नाम पर जाति, छुआछूत, रंगभेद जैसे सामाजिक दूषणों को नाबूद करने की कोशिश की। उन्होंने लोगों को ईश्वर के प्रति प्रेम की सच्ची परिभाषा समझाई। लोगों को अपने कर्मों का महत्व समझाया। रविदास जी ने मूर्ति पूजा से ज्यादा अपने कर्मों में विश्वास रखना चाहिए यह बात लोगों को बताई। रैदास कबीर के समकालीन थे। रामानंद गुरु के बारह शिष्यों में से रैदास और कबीर प्रमुख शिष्य थे। संत कबीर जी और गुरु रविदास जी में गहन मित्रता थी। उन दोनों महापुरुषों ने हिंदू और मुसलमानों को एक साथ लाने की कोशिश की। कबीर की तरह रैदास भी कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कबीर ने रैदास को ‘संतन में रविदास’ कहकर मान दिया था।
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