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कर्माबाई की कथा

17 जून 2022

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कर्माबाई की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। दूर-दूर से संत उनसे मिलने के लिए आते थे। ऐसे ही एक रोज एक महापुरुष आए और कहने लगे कि कर्माबाई, हर रोज भगवान्‌ तुम्हारे घर भोजन करने के लिए आते हैं। तुम कैसे भगवान्‌ के लिए भोजन तैयार करती हो? कर्माबाई ने अपने सीधे स्वभाव के अनुसार कहा कि मैं प्रभु का स्मरण करते-करते ही भोजन बनाती हूँ। खिचड़ी बनाती हूँ। जिस समय भोजन तैयार हो जाता है, परोसकर रख देती हूँ। भगवान्‌ आकर भोजन कर जाते हैं। महापुरुष कर्माबाई से कहने लगे कि तुम्हें भोजन करने से पहले स्नान करना चाहिए। जिन लकड़ियों के साथ आग जलाती हो उनको धोकर, सुखाकर और लेप करके फिर भोजन तैयार करना चाहिए। यह बात सुनकर कर्मा चिंतित हो गई कि मैंने तो कभी ऐसा सोचा ही नहीं।

कर्माबाई ने दूसरे दिन लकड़ियों को धोकर रख दिया, स्नान किया। चौके की सफाई की और भोजन तैयार करने लगीं। भगवान्‌ हर रोज की तरह नियत समय पर आए और देखा कि कर्मा ने भोजन अभी तैयार नहीं किया था। वे वापस चले गए। कुछ देर बाद कर्मा ने भोजन तैयार कर दिया और परोस दिया। भगवान्‌ आए और भोजन करने लगे। उनके हाथ और मुँह पर अभी खिचड़ी लगी हुई थी कि उसी समय स्वामी रामानंद के दरबार में भी भोजन तैयार करके भोग लगाने के लिए रख दिया गया और रामानंद ने भगवान्‌ को बुला लिया। अकसर ऐसा होता है कि भोजन तैयार कर कपड़े से ढक दिया जाता है और भगवान्‌ का आह्वान किया जाता है। जब भगवान्‌ जल्दी में आए तो रामानंद ने देखा कि भगवान्‌ के हाथ और मुँह पर खिचड़ी लगी हुई है। रामानंद ने पूछा कि प्रभु आप यह खिचड़ी कहाँ से खाकर आए हैं और आप आज इस रूप में कैसे आ गए? भगवान्‌ ने कहा कि मैं रोज कर्माबाई के पास खिचड़ी खाने जाता हूँ। आज किसी महापुरुष ने उसे बहका दिया जिस कारण उसने देर से खिचड़ी बनाई। उसने अभी हाथ धुलाए भी नहीं थे कि आपने याद कर लिया। मुझे उसी तरह उठकर आना पड़ा, हाथ-मुँह धोने का समय नहीं मिला। यह सुनकर स्वामी रामानंद दंग रह गए कि कर्माबाई के घर हर रोज भगवान्‌ खिचड़ी खाने जाते हैं। स्वामी रामानंद कर्माबाई के घर गए और कहा, 'आप हर रोज भगवान्‌ के लिए भोजन तैयार करती हैं और भगवान्‌ हर रोज खिचड़ी खाने आपके घर आते हैं। आपने ऐसी क्या साधना की है, जिसके कारण भगवान्‌ आप पर इतने दयालु हैं?'

कर्माबाई ने कहा कि मैंने तो ऐसी कोई साधना नहीं की, गुरु रविदास की बताई हुई मर्यादा के अनुसार भगवान्‌ का स्मरण करती हूँ और भगवान्‌ के लिए भोजन तैयार कर देती हूँ।

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रचनाएँ
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आज माघ महीने की पूर्णिमा है। शास्‍त्रों में इस दिन को बड़ा ही उत्तम कहा गया है इसी उत्तम दिन को 1398 ई. में धर्म की नगरी काशी में संत रविदास जी का जन्म हुआ था। रविदास जी को रैदास जी के नाम से भी जाना जाता है। इनके माता-पिता चर्मकार थे। इन्होंने अपनी आजीविका के लिए पैतृक कार्य को अपनाया लेकिन इनके मन में भगवान की भक्ति पूर्व जन्म के पुण्य से ऐसी रची बसी थी कि, आजीविका को धन कमाने का साधन बनाने की बजाय संत सेवा का माध्यम बना लिया। संत और फकीर जो भी इनके द्वार पर आते उन्हें बिना पैसे लिये अपने हाथों से बने जूते पहनाते। रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
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