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करमावती

17 जून 2022

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करमावती नाम की 60-65 वर्ष की महिला सीर गोवर्धनपुर में रहती थी। उसका बालक रविदास की दादी लखपती के साथ बहुत प्रेम था। दादी लखपती प्राय: अपने प्रिय पौत्र को लेकर उससे मिलने जाया करती थीं। करमावती स्वयं लखपती से मिलने के लिए नहीं आती थी, क्योंकि उसकी आँखों की रोशनी गए तीस वर्ष बीत चुके थे, परंतु फिर भी वह दिन भर चरखा चलाती थी। जब दादी लखपती करमावती के साथ बीते दिनों की बातें करतीं तो बालक रविदास उनके पास बैठकर सुनते रहते तथा करमावती के साथ हँसते-खेलते। लखपती जब उससे अंधेपन में चरखा कातने का कारण पूछती तो करमावती रो पड़ती और अपनी निर्धनता का वृत्तांत व घरेलू अभाव के बारे में खुलकर बताती। बालक रविदास यह सब सुनते तो उनका कोमल हृदय पिघल जाता।

एक दिन सुबह के समय करमावती चरखा कात रही थी। बालक रविदास अकेले ही उसके घर पहुँच गए। उन्होंने चुपचाप आकर उसकी धागे की टोकरी उठा ली और निकट ही खड़े हो गए। करमावती ने हाथ से टटोलकर धागे की टोकरी को देखा, परंतु उसे वह नहीं मिली। कुछ देर बाद बालक रविदास ने जब वह टोकरी उसी स्थान पर वापस रख दी जहाँ से उठाई थी, तब करमावती का हाथ उस टोकरी से लग गया। वह बहुत हैरान हुई, क्योंकि उसने पहले भी तो वहाँ हाथ लगाकर देखा था, करमावती को वहाँ किसी की उपस्थिति का एहसास हुआ, परंतु वह घबराई नहीं, क्योंकि प्राय: गाँव के बच्चे उसे सताया करते थे। फिर जब टोकरी में से धागा उठाकर वह कातने लगी। इतने में बालक रविदास ने तकले में से गलोटा खींच लिया। करमावती को तुरंत पता चल गया। जब बालक ने चरखा खींचा तो करमावती को क्रोध आया और उसने अपनी दोनों बाँहें फैलाकर बालक को पकड़ लिया और कहा, 'तुम कौन हो?'

बालक ने अपने दोनों हाथ करमावती की आँखों पर रखते हुए कहा, 'लो माता, तुम स्वयं देख लो, मैं कौन हूँ!'

करमावती शांत हो गई। जब करमावती ने आँखें खोलीं तो उसे सबकुछ दिखाई देने लगा। उसने बालक रविदास के सुंदर अलौकिक स्वरूप के दर्शन किए, फिर करमावती ने दोनों हाथ जोड़कर बालक रविदास को प्रणाम किया और कहने लगी, 'धन्य है वह माता, जिसने तुम्हें जन्म दिया है, धन्य है वह कुटुंब जिसमें तुमने जन्म लिया है।' इसके बाद करमावती ने घर की प्रत्येक वस्तु की ओर देखा और मन-ही-मन अत्यंत प्रसन्‍न हुई। इतने में बालक रविदास वहाँ से चले गए।

करमावती बालक के पीछे-पीछे उनके घर पहुँच गई। उसने सारे परिवार को पूरी कहानी सुनाई। इस चमत्कार के बारे में सुनकर परिजनों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

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रचनाएँ
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आज माघ महीने की पूर्णिमा है। शास्‍त्रों में इस दिन को बड़ा ही उत्तम कहा गया है इसी उत्तम दिन को 1398 ई. में धर्म की नगरी काशी में संत रविदास जी का जन्म हुआ था। रविदास जी को रैदास जी के नाम से भी जाना जाता है। इनके माता-पिता चर्मकार थे। इन्होंने अपनी आजीविका के लिए पैतृक कार्य को अपनाया लेकिन इनके मन में भगवान की भक्ति पूर्व जन्म के पुण्य से ऐसी रची बसी थी कि, आजीविका को धन कमाने का साधन बनाने की बजाय संत सेवा का माध्यम बना लिया। संत और फकीर जो भी इनके द्वार पर आते उन्हें बिना पैसे लिये अपने हाथों से बने जूते पहनाते। रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
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