करमावती नाम की 60-65 वर्ष की महिला सीर गोवर्धनपुर में रहती थी। उसका बालक रविदास की दादी लखपती के साथ बहुत प्रेम था। दादी लखपती प्राय: अपने प्रिय पौत्र को लेकर उससे मिलने जाया करती थीं। करमावती स्वयं लखपती से मिलने के लिए नहीं आती थी, क्योंकि उसकी आँखों की रोशनी गए तीस वर्ष बीत चुके थे, परंतु फिर भी वह दिन भर चरखा चलाती थी। जब दादी लखपती करमावती के साथ बीते दिनों की बातें करतीं तो बालक रविदास उनके पास बैठकर सुनते रहते तथा करमावती के साथ हँसते-खेलते। लखपती जब उससे अंधेपन में चरखा कातने का कारण पूछती तो करमावती रो पड़ती और अपनी निर्धनता का वृत्तांत व घरेलू अभाव के बारे में खुलकर बताती। बालक रविदास यह सब सुनते तो उनका कोमल हृदय पिघल जाता।
एक दिन सुबह के समय करमावती चरखा कात रही थी। बालक रविदास अकेले ही उसके घर पहुँच गए। उन्होंने चुपचाप आकर उसकी धागे की टोकरी उठा ली और निकट ही खड़े हो गए। करमावती ने हाथ से टटोलकर धागे की टोकरी को देखा, परंतु उसे वह नहीं मिली। कुछ देर बाद बालक रविदास ने जब वह टोकरी उसी स्थान पर वापस रख दी जहाँ से उठाई थी, तब करमावती का हाथ उस टोकरी से लग गया। वह बहुत हैरान हुई, क्योंकि उसने पहले भी तो वहाँ हाथ लगाकर देखा था, करमावती को वहाँ किसी की उपस्थिति का एहसास हुआ, परंतु वह घबराई नहीं, क्योंकि प्राय: गाँव के बच्चे उसे सताया करते थे। फिर जब टोकरी में से धागा उठाकर वह कातने लगी। इतने में बालक रविदास ने तकले में से गलोटा खींच लिया। करमावती को तुरंत पता चल गया। जब बालक ने चरखा खींचा तो करमावती को क्रोध आया और उसने अपनी दोनों बाँहें फैलाकर बालक को पकड़ लिया और कहा, 'तुम कौन हो?'
बालक ने अपने दोनों हाथ करमावती की आँखों पर रखते हुए कहा, 'लो माता, तुम स्वयं देख लो, मैं कौन हूँ!'
करमावती शांत हो गई। जब करमावती ने आँखें खोलीं तो उसे सबकुछ दिखाई देने लगा। उसने बालक रविदास के सुंदर अलौकिक स्वरूप के दर्शन किए, फिर करमावती ने दोनों हाथ जोड़कर बालक रविदास को प्रणाम किया और कहने लगी, 'धन्य है वह माता, जिसने तुम्हें जन्म दिया है, धन्य है वह कुटुंब जिसमें तुमने जन्म लिया है।' इसके बाद करमावती ने घर की प्रत्येक वस्तु की ओर देखा और मन-ही-मन अत्यंत प्रसन्न हुई। इतने में बालक रविदास वहाँ से चले गए।
करमावती बालक के पीछे-पीछे उनके घर पहुँच गई। उसने सारे परिवार को पूरी कहानी सुनाई। इस चमत्कार के बारे में सुनकर परिजनों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
संत रविदास की अन्य किताबें
संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम श्री कालूराम जी, दादी का नाम श्रीमती लखपती जी, पत्नी का नाम श्रीमती लोनाजी और पुत्र का नाम श्रीविजय दास जी है। गुरु संत रविदास 15 वीं शताब्दी के एक महान संत, दार्शनिक, कवि और समाज सुधारक थे. वह निर्गुण भक्ति धारा के सबसे प्रसिद्ध और प्रमुख संत में से एक थे और उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन का नेतृत्व करते थे. उन्होंने अपने प्रेमियों, अनुयायियों, समुदाय के लोगों, समाज के लोगों को कविता लेखन के माध्यम से आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए हैं. लोगों की दृष्टि में वह सामाजिक और आध्यात्मिक ज़रूरतों को पूरा कराने वाले एक मसीहा के रूप थे. वह आध्यात्मिक रूप से समृद्ध व्यक्ति थे. उन्हें दुनियाभर में प्यार और सम्मान दिया जाता है लेकिन इनकी सबसे ज्यादा प्रसिद्धि उत्तरप्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र राज्यों में हैं. इन राज्यों में उनके भक्ति आंदोलन और भक्ति गीत प्रचलित हैं. विदास बचपन से ही बुद्धिमान, बहादुर, होनहार और भगवान के प्रति चाह रखने वाले थे। रविदास जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गुरू पंडित शारदा नन्द की पाठशाला से शुरू की थी। लेकिन कुछ समय पश्चात उच्च कुल के छात्रों ने रविदास जी को पाठशाला में आने का विरोध किया। हालाँकि उनके गुरू को पहले से ही आभास हो गया था कि रविदास को भगवान ने भेजा है। रविदास जी के गुरू इन उंच-नीच में विश्वास नहीं रखते थे। इसलिए उन्होंने रविदास को अपनी एक अलग पाठशाला में शिक्षा के लिए बुलाना शुरू कर दिया और वहीं पर ही शिक्षा देने लगे। गुरू रविदास जी पढ़ने में और समझने में बहुत ही तेज थे, उन्हें उनके गुरू जो भी पढ़ाते थे वो उन्हें एक बार में ही याद हो जाता था। इससे रविदास के गुरू बहुत प्रभावित थे। रविदास जी के व्यवहार, आचरण और प्रतिभा को देखते हुए गुरूजी को बहुत पहले ही यह पता चल गया था कि यह लड़का एक महान समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरू बनेगा। रविदास जी ने धर्म के नाम पर जाति, छुआछूत, रंगभेद जैसे सामाजिक दूषणों को नाबूद करने की कोशिश की। उन्होंने लोगों को ईश्वर के प्रति प्रेम की सच्ची परिभाषा समझाई। लोगों को अपने कर्मों का महत्व समझाया। रविदास जी ने मूर्ति पूजा से ज्यादा अपने कर्मों में विश्वास रखना चाहिए यह बात लोगों को बताई। रैदास कबीर के समकालीन थे। रामानंद गुरु के बारह शिष्यों में से रैदास और कबीर प्रमुख शिष्य थे। संत कबीर जी और गुरु रविदास जी में गहन मित्रता थी। उन दोनों महापुरुषों ने हिंदू और मुसलमानों को एक साथ लाने की कोशिश की। कबीर की तरह रैदास भी कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कबीर ने रैदास को ‘संतन में रविदास’ कहकर मान दिया था।
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