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खोने का डर....

10 नवम्बर 2024

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अरुणिमा और प्रभात के बीच मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया और दोनो ने एक दूसरे के मोबाइल नंबर भी ले लिए थे। उसके बाद कभी वे कैफे में कॉफी पीते, कभी पार्क में लंबी बातें करते। दोनों के बीच की नजदीकियां धीरे-धीरे गहराती जा रही थीं।अरुणिमा और प्रभात के बीच की मुलाकातें अब एक आदत बन चुकी थीं। हर बार जब वे मिलते, तो वक्त जैसे ठहर जाता। एक-दूसरे से बातें करते हुए उन्हें महसूस होता कि वे बस किसी साथी से नहीं, बल्कि अपने ही अक्स से बात कर रहे हैं। लेकिन इन मुलाकातों के बीच, प्रभात के दिल का एक हिस्सा हमेशा बेचैन रहता था।

प्रभात के दिल में अरुणिमा के लिए जो भावनाएं थीं, वे अब हर मुलाकात के साथ और गहरी होती जा रही थीं। लेकिन वह उसे अपने दिल की बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। कई बार जब वह अकेला होता, तो खुद से बातें करता, जैसे अपनी भावनाओं को समझने की कोशिश कर रहा हो।
"क्यों नहीं कह पा रहा हूं?" वह खुद से कहता। "उसके साथ हर पल खास लगता है। मुझे उससे कहना चाहिए... पर क्या होगा अगर उसने ना कहा तो?"
वह जानता था कि वह अरुणिमा को पसंद करने लगा है—नहीं, शायद प्यार करता है। लेकिन प्यार कह देना उतना आसान नहीं था जितना उसने सोचा था। वह हर बार हिम्मत जुटाता, लेकिन उसके भीतर का डर उसे रोक देता।

एक शाम, जब वह अकेला अपने कमरे में बैठा था, तो उसने खुद से सवाल करना शुरू किया।
"मैं क्या कर रहा हूं? अगर मैंने उसे अपने दिल की बात नहीं बताई, तो क्या वह मुझसे दूर चली जाएगी? क्या मैं इस डर के साथ जी सकता हूं?"

अक्सर वह आईने के सामने खड़ा होकर खुद से बात करता।
"अरुणिमा, मैं तुमसे प्यार करता हूं।" उसने कहा, लेकिन फिर खुद ही हंस दिया। "यह कह देना इतना मुश्किल क्यों है? और अगर उसने मना कर दिया तो? क्या हमारी यह दोस्ती भी टूट जाएगी?"

इसी उधेड़बुन में उसने कई रातें बिताईं। लेकिन हर सुबह जब अरुणिमा का कॉल या मैसेज आता, तो उसकी सारी बेचैनी छूमंतर हो जाती। वह बस उसके साथ बिताए पलों में खो जाता।

अरुणिमा उसकी इस उधेड़बुन को समझ रही थी। उसके छोटे-छोटे इशारे, उसकी झिझक और उसकी आंखों में छिपे भाव—सब कुछ अरुणिमा की समझ से परे नहीं था। लेकिन वह चाहती थी कि प्रभात खुद अपनी भावनाओं का इज़हार करे। लेकिन वह जानती थी कि जब तक वह खुद अपने दिल की बात नहीं कहेगा, तब तक वह पूरी तरह से खुल नहीं पाएगा।

एक दिन, अरुणिमा ने प्रभात को कॉल किया।
"प्रभात, इस शनिवार को फ्री हो?" उसने सीधे पूछा।
"हां, शायद। क्यों?"
"मेरे घर आओ। मेरी मां तुमसे मिलना चाहती हैं।"
प्रभात ने कुछ पल के लिए चुप्पी साध ली।
"तुम्हारी मां?"
"हां। मैंने उन्हें तुम्हारे बारे में बताया है। और वैसे भी, मैं चाहती हूं कि तुम उनसे मिलो।"
उसकी आवाज में एक तरह की सहजता थी, जिसने प्रभात को हैरान कर दिया।
"ठीक है, आऊंगा," उसने जवाब दिया, लेकिन उसकी आवाज में झिझक साफ झलक रही थी।
इसके बाद मानो दोनों को शनिवार का ही इंतजार था और देखते देखते शनिवार का दिन भी आ गया, शनिवार की सुबह प्रभात के लिए किसी परीक्षा के दिन जैसी थी। प्रभात ने पूरा दिन आईने के सामने खड़े होकर अच्छे से बात करने कोशिश करता रहा और शाम होने पर उसने अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने, खुद को आईने में देखा, और बार-बार सोचने लगा, "क्या आज मैं अपनी बात कह पाऊंगा?"

जब वह अरुणिमा के घर पहुंचा, तो उसकी मां ने दरवाजे पर उसका स्वागत किया। वह एक गरिमामय महिला थीं, जिनके चेहरे पर सादगी और अनुभव का मिश्रण था।
"आओ बेटा, अंदर आओ," उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा।
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अरुणिमा ने उसे अंदर बुलाया और चाय का इंतजाम किया।
"मां, यह प्रभात है।"
"और प्रभात, यह मेरी मां।"

बातचीत का दौर शुरू हुआ। अरुणिमा की मां ने प्रभात से उसके परिवार, काम, और उसकी रुचियों के बारे में पूछा। प्रभात ने विनम्रता से उनके हर सवाल का जवाब दिया।

लेकिन उसकी नजरें बार-बार अरुणिमा पर टिक जातीं। अरुणिमा, जो अपनी मां के बगल में बैठी थी, उसकी बातों को सुन रही थी। उसकी मुस्कान और उसकी आंखों में एक अनकहा भरोसा था, जिसने प्रभात को थोड़ा सहज किया।

भावनाओं का पुल
अरुणिमा की मां ने जब यह कहा, "प्रभात, अरुणिमा की बहुत तारीफ करती है। कहती है, तुम बहुत सुलझे हुए इंसान हो," तो प्रभात थोड़ा झेंप गया।

"अरुणिमा का साथ मुझे बहुत अच्छा लगता है। उसने मेरी जिंदगी को एक नई दिशा दी है," प्रभात ने धीरे से कहा।

अरुणिमा ने उसकी ओर देखा। उसकी आंखों में एक हल्की चमक थी, जैसे वह यह सुनने का इंतजार कर रही हो।

जब बातचीत खत्म हुई, और प्रभात जाने के लिए खड़ा हुआ, तो अरुणिमा उसे दरवाजे तक छोड़ने आई।

"आज का दिन अच्छा था। तुम्हारी मां से मिलकर बहुत अच्छा लगा," प्रभात ने कहा।

"मुझे भी। और प्रभात... क्या तुम्हें कुछ कहना है?" अरुणिमा ने हल्के अंदाज में पूछा।

प्रभात ने उसकी आंखों में देखा। वह कुछ पल तक चुप रहा, जैसे उसके भीतर एक तूफान उठ रहा हो। लेकिन फिर उसने अपने शब्दों को रोक लिया।

"अभी नहीं। अगली बार कहूंगा।"

अरुणिमा मुस्कुराई।
"ठीक है। अगली बार का इंतजार रहेगा।"

प्रभात का आत्म-संवाद
घर लौटते समय, प्रभात के मन के भीतर एक और लड़ाई चल रही थी।
"क्यों नहीं कह पाया? उसने खुद मौका दिया था। लेकिन मैं फिर भी चुप रह गया।"

उसने अपने दिल से पूछा, "क्या मैं डरपोक हूं? या मैं बस सही वक्त का इंतजार कर रहा हूं?"

लेकिन उसकी आत्मा ने उसे जवाब दिया:
"प्यार वक्त का मोहताज नहीं होता। यह साहस मांगता है। और जब तक तुम इसे जताओगे नहीं, तुम्हारा डर तुम्हें खा जाएगा।"


प्रभात ने उस रात खुद से वादा किया।
"अगली बार मैं अरुणिमा को अपने दिल की बात जरूर बताऊंगा। मुझे दूसरा मौका मिला है, और इसे गंवाना मूर्खता होगी।"

दूसरी ओर, अरुणिमा ने अपनी मां से कहा,
"मां, प्रभात बहुत अच्छा इंसान है। पर वह अपने दिल की बात कहने से डरता है।"

उसकी मां ने हंसते हुए कहा,
"प्यार में धैर्य रखना सीखो, अरुणिमा। जो चीज अपने समय पर होती है, वही सबसे सुंदर होती है।"

अरुणिमा ने अपनी मां की बात मान ली। उसने सोचा, "शायद प्रभात को वक्त चाहिए। और मैं उसे वह वक्त दूंगी।"

उनकी कहानी अब एक नए मोड़ पर थी—जहां दिल की खामोशियां और शब्दों की तलाश दोनों अपनी भूमिका निभा रहे थे।


आगे की कहानी अगले भाग में......
Manju Devi

Manju Devi

Nice writing

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