तीन महीने बाद की दिल्ली की चहल-पहल भरी शाम थी। एक कॉफी शॉप में भीड़भाड़ के बीच अरुणिमा अपनी कॉफी का इंतजार कर रही थी। उसने हल्की सी मुस्कान के साथ बाहर देखा, जहां कारों की लाइटें और शाम की हलचल उसकी सोच में खोने का निमंत्रण दे रही थीं।
तभी एक जानी-पहचानी आवाज ने उसे चौंका दिया। "अरुणिमा?"
उसने पलटकर देखा—प्रभात।
दोनों की आँखें मिलीं, और एक पल के लिए समय जैसे थम गया। प्रभात के चेहरे पर एक सहज मुस्कान थी, जबकि अरुणिमा ने हैरानी और खुशी के मिश्रण के साथ जवाब दिया, "प्रभात! तुम यहाँ?"
"मैं तो बस एक मीटिंग खत्म कर के कॉफी लेने आया था," उसने कहा। "लेकिन तुम्हें यहां देखना... शायद इसे इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता।"
अरुणिमा हंस दी। "शायद नहीं।"
भीड़भाड़ भरे कैफे की आवाजें अब उनके बीच का कनेक्शन नहीं तोड़ सकती थीं, लेकिन उन्होंने बिना कुछ कहे तय किया कि यह जगह उनके संवाद के लिए सही नहीं है।
प्रभात ने पूछा, "यहां से बाहर चलें? शायद एक शांत जगह ढूंढ़ लें।"
अरुणिमा ने हामी भर दी।
इसके बाद दिल्ली की चांदनी रात मानो किसी कहानी का हिस्सा बन चुकी थी। खाली सड़क पर अरुणिमा और प्रभात चुपचाप टहल रहे थे। उनके बीच बस एक अजीब-सी खामोशी थी, जो शब्दों से कहीं ज्यादा कह रही थी। चांदनी की रोशनी में उनके साये उनके साथ चल रहे थे, और ठंडी हवा उनके भीतर की बेचैनी को सहला रही थी।
प्रभात ने चुप्पी को तोड़ा:
"अरुणिमा, जब मैं मनाली से लौटा था, तो सोचा था कि अब सब कुछ पीछे छोड़ दूंगा। पर पता नहीं क्यों, मैं तुमसे हुई उन कुछ बातों को भूल नहीं पाया। ऐसा लगता है जैसे तुमसे जुड़ी हर बात मेरे साथ रह गई।"
अरुणिमा ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में वही गहराई थी, जो उसने मनाली में महसूस की थी।
"प्रभात, शायद कुछ चीज़ें हमें छोड़ने के लिए नहीं, बल्कि हमारे साथ रहने के लिए होती हैं। और कभी-कभी, वे चीज़ें लोग बन जाते हैं।"
यह सुनकर प्रभात कुछ देर तक कुछ नहीं बोला। उसने अपनी निगाहें सड़क के पार किसी अदृश्य बिंदु पर टिका दीं। फिर बोला, "तुम्हें पता है, मैं इस बात को लेकर कभी समझ नहीं पाया कि मैं किस चीज़ से डरता हूं—यादों से या उनसे जुड़ी भावनाओं से। लेकिन जब मनाली में तुमसे मिला, तो पहली बार लगा कि मैं अपने डर को स्वीकार कर सकता हूं। तुमसे बात करना... एक आईना देखने जैसा था।"
अरुणिमा उसकी बात सुनकर थोड़ा ठहरी। "मैं भी कुछ ऐसा ही महसूस करती हूं। ऐसा लगता है कि हम दोनों के बीच कुछ अनकहा सा है, जो शब्दों में नहीं बंध सकता। पर क्या तुमने कभी सोचा है कि कुछ चीज़ों को शायद कभी हल करने की ज़रूरत नहीं होती?"
प्रभात ने उसकी तरफ देखा:
"तो क्या तुम मानती हो कि जो चीज़ें अधूरी हैं, वही सबसे खूबसूरत होती हैं?"
अरुणिमा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "शायद। पर यह अधूरापन दर्द नहीं देता, बल्कि सुकून देता है। जैसे यह रात। यह पूरी नहीं है, लेकिन फिर भी कितनी खूबसूरत है।"
उनके बीच फिर से खामोशी छा गई। लेकिन यह खामोशी भारी नहीं थी। यह उनके भीतर की बातों को एक-दूसरे तक पहुंचा रही थी, बिना किसी शब्द के।
थोड़ी देर बाद, प्रभात ने पूछा:
"अरुणिमा, तुमने कभी सोचा कि क्यों हमें ऐसे अजनबियों से जुड़ाव महसूस होता है, जिनसे हमारी कोई कहानी नहीं होती?"
अरुणिमा ने उसकी तरफ देखकर कहा, "शायद इसलिए, क्योंकि वे हमारी कहानी का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारी कहानी के सुनने वाले होते हैं। तुम्हारे साथ मैं वह कह सकती हूं, जो शायद किसी और से नहीं कह सकती।"
प्रभात मुस्कुराया, लेकिन उसकी मुस्कान में एक हल्की उदासी भी थी। "और अगर यह जुड़ाव एक सीमा पार कर जाए, तो क्या यह दर्द बन जाता है?"
अरुणिमा ने गहरी सांस ली। "शायद। पर कुछ दर्द ऐसे होते हैं, जो हमें कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत बनाते हैं। और कुछ जुड़ाव ऐसे होते हैं, जो सवालों के जवाब मांगने की बजाय हमें खुद से जोड़ते हैं।"
प्रभात ने धीरे से कहा:
"तो फिर हम क्या हैं, अरुणिमा? दो अजनबी जो हर साल मिलने का वादा करते हैं, या कुछ और?"
अरुणिमा ने उसके सवाल का जवाब नहीं दिया। वह बस चांदनी को देखती रही, जैसे उसके पास ही जवाब हो। फिर धीरे से बोली, "शायद हमें हर सवाल का जवाब ढूंढने की जरूरत नहीं। कुछ चीज़ें बस महसूस करने के लिए होती हैं।"
उन दोनों के बीच की चुप्पी:
उनकी बातें भले ही खत्म हो चुकी थीं, लेकिन उनके बीच की खामोशी अब भी गूंज रही थी। उनकी चाल धीमी हो गई थी, मानो वे इस पल को जितना हो सके उतना खींचना चाहते हों।
चांदनी की रोशनी में सड़क पर चलते हुए, दोनों के दिलों में एक ही सवाल गूंज रहा था। यह क्या है? क्या यह सिर्फ एक अनकहा जुड़ाव है, या कुछ और?
जब वे अपनी राहों की ओर बढ़ने लगे, तो प्रभात रुकते हुए बोला, "अरुणिमा, क्या हम अगला रविवार फिर उसी कैफे में मिल सकते हैं? शायद वहां, हम उस अधूरे सवाल का जवाब ढूंढ पाएं जो हमें समझ में नहीं आया।"
अरुणिमा ने पल भर को सोचा, फिर मुस्कुराते हुए कहा, "शायद हमें उन सवालों का जवाब खोजने की बजाय, उन्हें महसूस करना चाहिए। लेकिन हां, अगला रविवार... उसी कैफे में मिलते हैं।"
प्रभात के चेहरे पर हल्की सी राहत की लकीर फैल गई, और दोनों ने बिना शब्दों के, एक दूसरे से यह वादा कर लिया कि अगला रविवार, उसी कैफे में, एक और मुलाकात होगी।
फिर दोनों चांदनी में अपनी राहों पर चल पड़े, यह जानते हुए कि आने वाला रविवार कुछ खास होने वाला था—जहां शायद न सवाल होंगे, न जवाब, लेकिन फिर भी कुछ ऐसा होगा जो उन्हें समझने की कोशिश करनी होगी।
आगे की कहानी अगले भाग में.......