रविवार का दिन था। सूरज की हल्की किरणें खिड़की से छनकर अंदर आ रही थीं। प्रभात सुबह जल्दी उठ गया था, लेकिन उसके चेहरे पर बेचैनी साफ नजर आ रही थी। चाय का कप लिए वह बालकनी में खड़ा था, उसकी नजरें कहीं दूर थीं। अरुणिमा से अपनी भावनाओं का इज़हार करने के बाद, वह राहत महसूस कर रहा था, लेकिन आज का दिन एक नई जिम्मेदारी का संकेत था।
"क्या मेरी माँ अरुणिमा को अपनाएंगी?" यह सवाल उसके दिल को बेचैन कर रहा था। तभी फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर अरुणिमा का नाम चमक रहा था। उसने जल्दी से फोन उठाया।
"गुड मॉर्निंग, प्रभात।" उसकी आवाज में एक आत्मीयता थी, जिसने प्रभात को पल भर के लिए सुकून दिया।
"गुड मॉर्निंग। तैयार हो?" प्रभात ने पूछा।
"तुम्हारे साथ हूँ, प्रभात। पर हाँ, थोड़ी नर्वस जरूर हूँ।"
प्रभात हल्का मुस्कुरा दिया। "नर्वस मत हो, अरुणिमा। तुम बिल्कुल ठीक हो। बस खुद को वैसा ही रखना, जैसी तुम हो।"
"ठीक है," अरुणिमा ने जवाब दिया।
दोनों ने रविवार की दोपहर को मिलने का तय किया। प्रभात ने अरुणिमा को अपने परिवार के बारे में छोटी-छोटी बातें बताईं—उसकी माँ का शांत स्वभाव, और उसके पिता की आदतें। अरुणिमा ने ध्यान से सब सुना और कहा "मैं 12 बजे तक तुम्हारे घर के पास पहुँच जाऊंगी।"
प्रभात का घर एक पुराने दिल्ली की गलियों में स्थित एक बड़ा और सजीव घर था। घर के बाहर तुलसी का पौधा रखा हुआ था, जो उसकी माँ की धार्मिकता को दर्शाता था। गेट पर नीले रंग की पेंटिंग और "शर्मा निवास" लिखा हुआ था।
घड़ी ने दोपहर के 12 बजाए, और दरवाजे की घंटी बजी, और रिया दरवाजे की तरफ दौड़ती हुई आई। "भैया, कोई मेहमान आया है क्या?" उसने हंसते हुए पूछा।
"हाँ, दरवाजा खोलो," प्रभात ने हिचकिचाते हुए कहा।
रिया ने दरवाजा खोला और सामने अरुणिमा को देखकर पल भर के लिए चौंक गई। "ओहो! तो यही है हमारी मेहमान?" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
अरुणिमा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "नमस्ते।"
"नमस्ते! आइए, अंदर आइए। मैं रिया हूँ, प्रभात की बहन।" उसने शरारत भरे अंदाज़ में कहा।
अंदर जाने पर पहली नज़र में घर के कोने-कोने में एक पारिवारिक आत्मीयता का एहसास होता था। दीवारों पर प्रभात और उसकी बहन रिया के बचपन की तस्वीरें लगी थीं। एक तस्वीर में दोनों भाई-बहन पतंग उड़ाते दिख रहे थे, और दूसरी में स्कूल के किसी फंक्शन में उनकी माँ के साथ खड़े थे।
ड्राइंग रूम में हल्के गुलाबी रंग की दीवारें थीं, जिन पर साधारण लेकिन खूबसूरत पेंटिंग्स टंगी हुई थीं। एक कोने में भगवान कृष्ण की मूर्ति थी, जिसके सामने अगरबत्तियाँ जल रही थीं।
प्रभात ने उसे अंदर बुलाया, अरुणिमा हल्की गुलाबी साड़ी में खड़ी थी। उसकी सादगी और मुस्कान ने प्रभात को एक पल के लिए मंत्रमुग्ध कर दिया।
"तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो," उसने धीमे से कहा।
अरुणिमा मुस्कुराई, "यह दिन खास है, तो थोड़ी तैयारी तो बनती है।"
घर का माहौल थोड़ा गंभीर था। उसकी माँ रसोई में कुछ तैयारी कर रही थीं, और पिता अखबार पढ़ रहे थे।
प्रभात की माँ (सुमित्रा शर्मा) एक साधारण लेकिन आत्मविश्वास से भरी महिला थीं। जीवन के संघर्षों ने उनके चेहरे पर गहरी झलक छोड़ दी थी, लेकिन उनके बोलने और व्यवहार करने का तरीका बेहद सौम्य और प्रभावी था। वह हमेशा अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को प्राथमिकता देती थीं और अपने बच्चों के लिए जीती थीं। प्रभात के पिता (शरद शर्मा) एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी थे। वह कम बोलते थे, लेकिन उनके हर शब्द में वजन होता था। वे पारंपरिक मूल्यों को मानने वाले व्यक्ति थे, लेकिन बच्चों की खुशी के लिए अपने विचारों को लचीला रखने की कोशिश करते थे।
और रिया, प्रभात की छोटी बहन, हाल ही में कॉलेज से ग्रेजुएट हुई थी और अब अपने करियर की शुरुआत कर रही थी। वह बेहद चंचल और खुशमिजाज थी। उसकी बातों में हमेशा एक हल्की सी शरारत होती थी, लेकिन जब बात परिवार की आती, तो वह बेहद गंभीर हो जाती थी। रिया, प्रभात और उनकी माँ के बीच की कड़ी थी।
जैसे ही अरुणिमा अंदर आई, प्रभात की माँ ने उसे देखा। साड़ी में लिपटी हुई अरुणिमा की सादगी और गरिमा ने तुरंत उनके दिल को छू लिया।
"आओ, बेटा। बैठो।" सुमित्रा ने प्यार भरे लहजे में कहा। "तुम बहुत सुंदर हो।"
"धन्यवाद, आंटी।" अरुणिमा ने विनम्रता से जवाब दिया।
अरुणिमा ने धीरे से उनके पैर छुए और मुस्कुरा कर कहा, "नमस्ते आंटी।"
माँ ने आशीर्वाद दिया, लेकिन उनकी आँखों में एक सवाल था, जिसे वह सीधे पूछना नहीं चाह रही थीं।
सुमित्रा ने अपने हाथ से बनाई चाय सबके लिए लाई। चाय की खुशबू पूरे कमरे में फैल गई थी। रिया ने अरुणिमा के बगल में बैठते हुए कहा, "आप और भैया कहां मिले थे?"
प्रभात ने रिया को घूरा। "रिया!"
"क्या? मैं तो बस पूछ रही हूँ।" उसने शरारत भरे अंदाज़ में कहा।
अरुणिमा हंस पड़ी। "हम मनाली में मिले थे।"
"ओह, तो यह वही कहानी है जिसके बारे में भैया अक्सर सोचते रहते थे।" रिया ने मुस्कराते हुए कहा।
"रिया, तुम चुप रहोगी या नहीं?" प्रभात ने गुस्से का नाटक किया। सुमित्रा ने हल्के से हंसते हुए कहा, "तुम परेशान मत हो, बेटा। यह तो सबके सामने सब कुछ उगल देती है।"
अरुणिमा ने मुस्कुराते हुए कहा, "नहीं, आंटी। मुझे यह अच्छा लग रहा है।"
सुमित्रा ने थोड़ा गंभीर होते हुए पूछा, "बेटा, तुम्हारे परिवार में कौन-कौन हैं?"
"मेरी माँ हैं, आंटी। पापा का कुछ साल पहले निधन हो गया था। मेरी छोटी बहन सिया थी, लेकिन उसे भी खो दिया। अब माँ और मैं ही हैं।"
सुमित्रा ने गहरी सांस ली। "तुम्हारे जीवन में इतनी मुश्किलें आईं, और फिर भी तुम इतनी सशक्त हो। यह बहुत बड़ी बात है।"
शरद शर्मा, जो अब तक चुप थे, बोले, "डॉक्टर होना आसान नहीं है। जिम्मेदारी का काम है। तुम इसे कैसे संभालती हो?"
"अंकल, जब आपका काम आपका जुनून बन जाए, तो हर मुश्किल आसान लगने लगती है।" अरुणिमा का जवाब इतना सटीक था कि शरद मुस्कुरा दिए।
सुमित्रा ने चाय का कप रखते हुए कहा, "बेटा, हम तो पुराने ख्यालों के लोग हैं। लेकिन तुम्हारी सादगी और विचारों ने मेरा दिल जीत लिया। प्रभात ने सच में सही चुनाव किया है।"
अरुणिमा ने नम्रता से सिर झुका लिया।
शरद ने कहा, "रिश्ते सिर्फ दो लोगों के बीच नहीं बनते। यह परिवारों का भी मेल होता है। अगर तुम्हारी माँ से भी हमारी बात हो जाए, तो अच्छा लगेगा।"
प्रभात और अरुणिमा ने एक-दूसरे की ओर देखा। यह पहला कदम था, लेकिन यह बहुत खास था।
माहौल धीरे-धीरे सहज हो रहा था। प्रभात की माँ ने अरुणिमा की बातों और उसकी सादगी को महसूस किया। उनकी आँखों में अब पहले जैसा संशय नहीं था।
थोड़ी देर बाद, जब दोनों अकेले बैठे, तो प्रभात ने धीरे से कहा, "तुमने माँ का दिल जीत लिया। मैं देख सकता हूँ।"
अरुणिमा ने मुस्कुरा कर कहा, "लेकिन तुम्हारे पापा अभी भी थोड़ा सोच रहे हैं। मुझे समय देना होगा।"
"वह भी मान जाएंगे। मुझे यकीन है। तुमने आज साबित कर दिया कि मैं कितना सही हूँ।"
रिया ने अरुणिमा के बगल में बैठते हुए बातचीत में हल्कापन लाने के लिए कहा, "तो भाभी जी, भैया से शादी के बाद आप क्या-क्या सिखाने वाली हैं?"
अरुणिमा ने हंसते हुए कहा, "पहले तो मैं उन्हें किचन में भेजने वाली हूँ। डॉक्टर हूँ, लेकिन खाना बनाना मुझे बहुत पसंद है।"
"ओहो, भैया तो गए काम से।" रिया ने शरारत भरे अंदाज़ में कहा।
रिया ने जाते-जाते कहा, "भाभी, जल्दी ही दोबारा आइएगा। और इस बार भैया को साथ मत लाइए। आप और मैं गपशप करेंगे।"
अरुणिमा हंस पड़ी। "पक्का।"
जैसे ही अरुणिमा घर से बाहर निकली, प्रभात ने उसे गेट तक छोड़ा।
"तुम्हें लगा था कि सब इतना आराम से होगा?" अरुणिमा ने चुटकी ली।
"नहीं," प्रभात ने मुस्कुराते हुए कहा। "लेकिन मैं जानता था कि तुम सब कुछ ठीक कर दोगी।"
इस मुलाकात के बाद, प्रभात ने महसूस किया कि उनका रिश्ता केवल उनके बीच नहीं रहा। यह अब परिवारों के जुड़ने और सामाजिक बंधनों को समझने का एक सफर था।
बाकी की कहानी अगले भाग में......