कुछ बेसबब, अल्हड़ से ख्वाब ,
चश्मे-तर में कहां होते हैं,
तकिये के नीचे दबे होते हैं...।
दबे पांव निकल कर, संभल कर,
आपकी ठुड्डी सहला जाते हैं...
आलमें-इम्कां का एतबार न टूटे,
इस कर थपकियों से जगा जाते हैं...
होने को जहां में क्या नहीं होता,
पर ये ख्वाब मुकम्मल नहीं होता,
फिर भी, तकिया किसके पास नहीं होता...!