"कुंडलिया"
मारे मन बैठी रही, पुतली आँखें मीच।
लगा किसी ने खेलकर, फेंक दिया है कीच।।
फेंक दिया है कीच, तड़फती है कठपुतली।
हुई कहाँ आजाद, सुनहरी चंचल तितली।।
कह गौतम कविराय, मोह मन लेते तारे।
बचपन में उत्पात, बुढापा आ मन मारे।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी