नमस्कार मित्रों
जैसा कि आप लोगो ने पिछले भाग में पढ़ा कि एक एसएसटी यात्री का जीवन कितना संघर्षमय होता है | उन्ही में से एक मैं भी हूं| आज मैं आपके समक्ष अपनी पहली दैनिक रेल यात्रा के बारे में बताने जा रहा हूं |
बात वर्ष 2013 की है मुझे नौकरी लखनऊ जिले में करने का आदेश आया और मेरा घर कानपुर - उन्नाव जिले के बॉर्डर में है जहां से लखनऊ करीब 70 किलोमीटर पड़ता है और रेल मार्ग सबसे उपयुक्त साधन माना जाता है|
चुकी मेरे पिता जी भी एमएसटी कर चुके थे लखनऊ की अतः मुझे जानकारी थी इन चीजों की | पर एक बैचेनी थी रोज सुबह 09 बजे उठने वाला सुबह 4 बजे कैसे उठेगा ?
रात का डिनर करने के बाद मैंने फोन में तीन अलार्म सेट किये ताकि गलती की गुंजाइश न रह जाए और 10 बजे रात में ही सो गया |
चूंकि मेरे पास का स्टेशन एक लोकल स्टेशन है जहां सिर्फ पैसेंजर गाड़ियां ही रुकती है अतः मुझे पहली लोकल पकड़नी थी जो सुबह 5:05 पर आती थी |
सुबह 4:05 पर दूसरे अलार्म पर मैं उठा और देखा तो माँ मेरे लिए चाय बना रही थी साथ ही साथ टिफिन भी लगा रही थी हालांकि मैने रात में मना किया था ताकि उनको परेशानी न हो पर मातृत्व प्रेम शायद यही है|
मैने तैयार होकर चाय पी और 04:45 पर घर से पैदल निकल पड़ा ,चुकी स्टेशन घर से 400 मीटर दूर ही है इसलिए 15 मिनट पर्याप्त थे |
05:00 बजे मैं स्टेशन पर था वहां कुछ ही लोग थे लोग गाड़ी का इंतज़ार कर रहे थे निर्धारित समय पर गाड़ी आ जाती है और 05:05 पर चल देती है |
गाड़ी अधिकांश खाली थी कुछ लोग सो रहे थे और कुछ पेपर पढ़ रहे थे मै भी एक युवक के बगल में बैठ गया बाद में बातचीत करने पर पता लगा वो भी रोज अप डाउन करते हैं |
इसी क्रम में गाड़ी उन्नाव जंक्शन पहुचती है जहां के समोसे और चाय पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं मैंने भी समोसे लिए 10 के 4 (2013 में) और 3 रुपए की चाय तब तक गाड़ी चल देती है इसके बाद लखनऊ तक सभी लोकल स्टेशनथे जिनके बारे में मुझे कुछ नही पता था |
स्टेशम छोटे पर यात्री भरपूर थे और अधिकांश मजदूर वर्ग था जो लखनऊ में काम करते थे | गाड़ी में बैठने की सीट भर चुकी थी अब लोग खड़े होने लगे थे |
इसी क्रम में स्टेशन आया हरौनी नाम का यहां की भीड़ ट्रैन में मौजूद सभी यात्रियों की संख्या से ज्यादा थी | जिसका कारण पता लगा वह स्टेशन करीब 25 गांव को जोड़ता था गाड़ी फुल पैक हो चुकी थी दो की सीट पर तीन और तीन वाली पर चार लोग बैठे थे खड़े होने की भी जगह नही थी|
मैंने संस्कार के अनुसार अपनी सीट एक महिला को दे दी(बाद में पता लगा एमएसटी में ये नियम लागू नही होता विकलांग और बुगुर्ज को छोड़कर) |
करीब दो स्टेशन के बाद तीसरा स्टेशन जो आया उसमे 80% गाड़ी खाली हो गयी जिससे समझ आ गया ये लखनऊ से ठीक पहले का स्टेशन है| अब डिब्बे में एक छोर से दूसरे छोर तक देखा जा सकता था | 2मिनट बाद गाड़ी वहां से चल देती है| और स्टेशन पर चारो तरह यात्री दिखते हैं जो बाहर निकल रहे होते हैं |
उसके बाद लखनऊ आउटर पर गाड़ी 15 मिनट रुककर चलदेती हैऔर कुछ समय मे सभी यात्री उठने लगते हैं जिससे मुझे एहसास हो गया कि लखनऊ आ रहा है|
सभी गेट यात्री से भर गए थे और मैं भी उसी भीड़ में फंसा था प्लेटफार्म पर गाड़ी रुकने लगती है पर यहां उससे भी ज्यादा भीड़ थी | पूछने पर पता लगा यही गाड़ी वापस होनी थी कानपुर को|
गाड़ी रुकते ही जल्दी उतरो जल्दी उतरो पहले उतरने दो बाद में चढ़ना की आवाज आने लगती हैं उसी बीच मुझे धक्का आता है और मैं सम्भलते हुए प्लेटफॉर्म पर उतर जाता हूं |
आज भी मैं एमएसटी करता हूं और अब मुझे ये सब सामान्य लगता है एमएसटी से जुड़े कई अच्छे बुरे किस्से आपसे इस सीरीज में आगे शेयर करता रहूंगा|
ये थी मेरी पहली दैनिक रेल यात्रा| आपने कभी दैनिक रेल यात्रा की हो तो कमेंट बॉक्स में अवश्य शेयर करें और समीक्षा अवश्य दें |
आपका
शैलेश 🙏