वह एक निर्मम हत्या करने का दोषी था. पुलिस ने उसके
विरुद्ध पक्के सबूत भी इकट्ठे कर लिए थे.
पहले दिन ही जज साहब को इस बात का आभास हो गया था कि
अपराधी को मृत्यदंड देने के अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा विकल्प न होगा. लेकिन जिस
दिन उन्हें दंड की घोषणा करनी थी वह थोड़ा विचलित हो गये थे. उन्होंने आज तक किसी
अपराधी को मृत्युदंड नहीं दिया था. इतने दिन मन ही मन वह कामना कर रहे थे कि मामले
में अचानक कोई नया मोड़ आ जाएगा और स्थिति पलट जायेगी. लेकिन ऐसा हुआ. हर नया सबूत उनके
विकल्पों को सीमित कर उन्हें उस विकल्प तक ले जा रहा था जिसकी कल्पना भी वह नहीं
करना चाहते थे. वह अच्छी तरह समझते थे कि अपराधी को मृत्युदंड दे कर ही इस मामले
में उचित न्याय हो पायेगा.
मृत्युदंड की घोषणा करते समय जज भावावेश से कांप रहे थे.
आजतक कभी भी अदालत से एकाएक उठ कर वह नहीं गये थे. लेकिन
आज वह इतने उद्वेलित हो गये थे कि कोई और केस सुनने का साहस उन में नहीं रहा था.
घर पहुंचे तो वह बिलकुल दयनीय, विकल और निस्तेज दिख रहे थे.
हत्यारे को पुलिस अदालत से बाहर ले आई. उसकी चाल में ज़रा
सी भी हिचकिचाहट न थी और उसकी निर्मम आँखें बिलकुल भावनाशून्य थीं.
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(सलीम अली की आत्मकथा, ‘दि फॉल ऑफ़ ए स्पैरो’ में लिखी एक घटना से प्रेरित.)